वेदान्त प्र. – उ.
जो आरोपित नाम रूप को मिटाने आते हैं वे स्वयं एक नाम, एक रूप के रूप में प्रकट होते हैं – इष्ट या गुरु |
श्री श्री माँ
श्रवण ज्ञान है जो तत्त्व तक ले जाता है | लेकिन, हमने साधुओं में देखा है, वे बोलते हैं –
‘बहुनाम जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते |’ (गी. 7/19)
बहुत जन्मों तक साधना करेंगे तब ज्ञान होगा | मतलब आपने ज्ञान को दूर फेंक दिया। जिस ज्ञान द्वारा यहीं आपको मुक्ति प्राप्त होती है,इसमें क्रम मुक्ति स्वीकृत नहीं है। इसमें दूसरी जगह गमनागमन अर्थात् देश-काल-वस्तु का अन्तर स्वीकृत नहीं है | सद्योमुक्ति इष्ट है | ऐसा यह ज्ञान है; विलक्षण तत्त्व-ज्ञान है !
आप जिस समय समझ रहे हैं आपकी कर्मेन्दियाँ शान्त हैं, आप कान से श्रवण कर रहे हैं और आपकी बुद्धि समझ रही है तो उसमें कर्म नहीं है | यह ज्ञान है | यह ज्ञान उसी समय आपके अन्दर परिवर्तन करता है, आपकी बुद्धि में परिवर्तन करता है, यदि सम्यक श्रवण है तो ! आप सम्यक श्रवण नहीं कर रहे हैं | श्रवणमात्र से ज्ञान होता है |
‘संन्यस्य श्रवणं कुर्यात्‘
सब कुछ त्याग कर, आग्रह, दुराग्रह, संग्रह, परिग्रह जो भी कुछ है आपका उन सारे ग्रहों को छोड़कर तब श्रवण होता है |
‘शास्त्रं ज्ञापकं न तु कारकम्‘
शास्त्र आपको ज्ञान कराता है | वह आपको किसी कर्म में नहीं लगाता | शास्त्र या उपदेश या सत्संग हमेशा ज्ञापक होता है |
अध्यात्मिक ज्ञान में भी दो कक्षाएँ होती हैं |
1)आप अपने को असंग आत्मा मानते हैं, तो वहाँ अभ्यास करेंगे |
2)जहाँ शुद्ध चेतन का ज्ञान है, आत्म चैतन्य और ब्रह्म चैतन्य की एकता है और विशुद्ध बोध का निरूपण है, वहाँ आपको कुछ करने की आवश्यकता नहीं है | वृत्तियों का निरोध करने की भी आवश्यकता नहीं है | वृत्तियाँ रहे अपनी जगह, अन्तःकरण रहे अपनी जगह और आप चिदाकाश स्वरूप, अपने स्वरूप में स्थित हो जाते हैं | वहाँ कुछ करना नहीं होता| किसी कर्म की आवश्यकता वहाँ नहीं है |
श्रवण को वेदान्त का एक पारिभाषिक शब्द बताया जाता है।
‘वेदान्तानामशेषाणामादिमध्यावसानतः |
ब्रह्मात्मैक्यं ही तात्पर्यमिति धीः श्रवणं भवेत् ||‘
जब आपने वेदान्तों का घनघोर श्रवण किया तो कहा – अशेष अर्थात् समस्त वेदान्तों में – आदि में, मध्य में और अन्त में – केवल आत्मा और ब्रह्म की एकता का ही बोध कराया गया है | इस प्रकार की जब निश्चय वृत्ति बनती है तब उसे कहा जाता है श्रवण |
उत्तर – चिदाभास कार्य को देखता है, कार्य को देखकर चिदाभास है I
साक्षी कार्य और कारण दोनों को देखता है I साक्षी वह चैतन्य है जो निर्विकार होकर देखता है I अर्थात् कर्ता न होकर साक्षी मात्र है I साक्षी जीव और ईश्वर का अनुसन्धान करता है I साक्षी निरपेक्ष है I
‘साक्षात्पश्यति इति साक्षी‘
‘साक्षात्पश्यति करनैव विना पश्यति |‘
साक्षी से साक्षी को नहीं देखा जा सकता जैसे आँख से आँख को नहीं देखा जा सकता I
द्रष्टा दृश्य सापेक्ष है I जो दिखता है वह दृश्य और जिसको दिखता है वह द्रष्टा है I कभी-कभी इन्द्रिय, मन और बुद्धि को हम द्रष्टा कह देते हैं लेकिन साक्षी को नहीं कह सकते I
उत्तर – श्रद्धा अर्थात् सत्य को धारण करने की शक्ति । यहाँ ऐसी श्रद्धा है जो सत्य के सिवाय और किसी को धारण करना नहीं चाहती। यह बुद्धि की ऐसी विशेषता है कि वह केवल सत्य को धारण करें और जितना असत्य है उसको छोड़ दे, उठाकर फेंक दे उसको, उसे कहते हैं श्रद्धा ।
उत्तर – वृत्ति में जो आरूढ़ हो जाता है आत्मा और ब्रह्म (वास्तव में तो वृत्ति छोटी होती है।) तो, महावाक्य से, वृत्ति से, ब्रह्म प्रकाशित नहीं होता लेकिन वृत्ति में आत्मा और ब्रह्म को आरूढ़ करके वृत्ति में जो परिच्छिन्न ‘अहं-अहं-अहं’ हो गया है उसका निवारण हो जाता है और उसके निवारण को ही अखण्डार्थ धी कहते हैं I
उत्तर – ‘ श्रोत्रिय’ कह कर बताया कि जिसको ब्रह्मविद्या प्राप्त है, ‘अकामहत’ से बताया कि वह वैराग्यवान् है I और उसके जीवन में निर्वासानता है I यह हुई गुरु की बात I
अब शिष्य की बात – श्रोत्रियस्य च अकामहत – अर्थात् श्रवण चाहिए और भक्ति चाहिए I
गीता में भगवान् कहते हैं –
“ज्ञानिनः तत्त्व-दर्शिनः ” या “श्रोत्रियस्य च अकामहतस्य ” अब शिष्य श्रवण तब करेगा जब चित्त में प्रीति होगी अर्थात् ज्ञान में प्रीति होगी I गुरु भक्ति तब आएगी जब उसको सत् में प्रीति होगी। श्रवण और भक्ति यह चित् का और सत् का विस्तार है ।
उत्तर – सम दृष्टि में कदाचित् व्यवहार रहे, कदाचित् प्रतीयमान त्रिपुटी रहे लेकिन जहाँ ब्रह्म दृष्टि है वहाँ त्रिपुटी भी नहीं रहती, वहाँ व्यवहार नहीं रहता।
उत्तर – भगवान् ने एक सूत्र दिया है –
“ कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्माणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।” (गीता ४/१८ )
कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म अर्थात् परमार्थिक सत्ता और व्यवहारिक सत्ता ये दोनों में कोई मतभेद नहीं है । परमार्थ वस्तु इतनी बड़ी है कि यह व्यवहार उसमें कोई महत्व रखता नहीं है। हाँ, जब तक साधक है, जिज्ञासु है तब तक गड़बड़ी पैदा होती है ।
उत्तर – निदिध्यासन का अर्थ है ध्यान करने कि इच्छा I निदिध्यासन शब्द का श्रुति में विज्ञान अर्थ किया है -” आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन, श्रवणेन मत्वा विज्ञानेनेंद सर्वं विदितम् “– यह आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान किये जाने योग्य है I हे मैत्रेयि! इस आत्मा के श्रवण, मनन एवं विज्ञान से इन सबका ज्ञान हो जाता है I यहाँ तात्पर्य यह है कि जैसे -जैसे आप श्रवण कर रहे हैं – वैसे -वैसे आपका जो संदेह है, उसकी एक-एक गाँठ खुलती जाती है I वही विज्ञान है I
उत्तर : महावाक्य जन्य अखण्डाकार वृति का उदय जिज्ञासु को गुरुदेव के उपदेश से होता है, तब जो वृति उत्पन्न होती है उससे अविद्या की निवृत्ति होती है, ध्यान रखना उससे परमात्मा नहीं बनता ।
उत्तर – इसका अर्थ यह निकलता है कि वास्तव में यह सत्ता दो नहीं एक है। जो अज्ञान से चीज पैदा हुई है उसकी सत्ता ही नहीं है तो सत्ता और असत्ता का ही भेद है। अज्ञान से जो पैदा हुआ, अज्ञान के आवरण से जो सम्पूर्ण सृष्टि दिखती है, उसकी सत्ता ही नहीं है और अनन्त परमात्मा अपनी महिमा में ज्यों-का-त्यों रहता है – ‘स्वमहिम्निप्रतिष्ठितम्’।दूसरा जो अन्य दिख रहा है, जो आवरण दिख रहा है, ढ़कने वाला बन रहा है, वह है नहीं।
1)प्रथम भूमिका निःस्वार्थ भाव से फलासक्ति रहित होकर कर्म करने की है |
2)द्वितीय भूमिका कर्मासक्ति रहित होकर कर्म करने की है |
3) तृतीय भूमिका कर्तृत्वासक्ति रहित होकर
करने की है |
4)चतुर्थ भूमिका अकर्तृत्वासक्ति रहित होकर कर्म करने की है |
1)प्रथम दो भूमिकाओं में फल की आसक्ति और कर्म की आसक्ति का त्याग है | आसक्ति माने चिपकना है | फल से चिपक गये कि यह फल हमें मिले | अगर फल से नहीं चिपके तो यह सोचने लगे कि-
2) कर्मासक्ति
१ )कर्म हमें करते ही रहना है |
२)कर्म जो हम करें वह ऐसा न हो कि बाकी रह जाये | कर्म के पूरा होने की आसक्ति | परन्तु कर्म कभी किसी के पूरे हुए नहीं |
३)अथवा कहेंगे कि ऐसे नहीं
ऐसे ही करना है | अर्थात् उनकी रुचि और इच्छा के अनुसार ही कर्म होना चाहिए | छोटी-मोटी बातों में भी उनका आग्रह बना रहता है | ये तीनों कर्मासक्ति को ही दिखाती है |
जीवन में कर्मासक्ति भी एक होती है | एक तो है कि हम फल से चिपके रहें | शुभ संकल्प करो, शुभ कर्म करो | अधूरा रह गया है, तो आगे की पीढी़ उसे पूरा करेगी, यह आग्रह मत रखो | प्रत्येक की अपनी सामर्थ्य होती है, पात्रता होती है, शक्ति होती है, वय होती है, उसके अनुसार संस्कार होते हैं तथा तदनुसार कर्म करता है | अतः कर्मासक्ति नहीं होनी चाहिए
3)कर्मासक्ति भी छोड़ दी तो कर्तृत्वासक्ति रहती है | ‘मैं करता हूँ’ वह भी नहीं होना चाहिए |
चतुर्थ अकर्तृत्वासक्ति ‘मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ’, इसका भी एक अभिमान बनता है | ‘हम कुछ नहीं करेंगे, हम सबसे श्रेष्ठ हैं,’ ऐसा एक अभिमान बनता है | अच्छे-अच्छे लोगों में भी, ‘हम श्रेष्ठ हैं,’ ‘हम ज्ञानी हैं, दूसरे सब अज्ञानी है’ – ऐसा जो सोचता है, वह निश्चित रूप से अज्ञानी है | स्वयं को ज्ञानी समझ कर और दूसरे को अज्ञानी समझता है, अर्थात् भेद-दृष्टि बनी हुई है |
4)भेद दृष्टि बनी हुई है तो ज्ञान कहाँ? क्योंकि अभेद दर्शन ज्ञानम्’ अभेद दर्शन यह ज्ञान है | अतः यह अकर्तृत्वासक्ति भी नहीं होनी चाहिए |
स्वामी अखंडानंद सरस्वती
वेदान्त के अनुसार साधन का क्रम
अन्तःकरण की जो आप सफाई करते है उस भूमिका से साधनों का विचार किया गया है |
1)कर्म शोधक साधन,
2)करण शोधक साधन,
3)पदार्थ शोधक साधन;और
4)साक्षात् साधन
1)प्रथम जो कर्म शोधक साधन है उसे परम्परा साधन भी कहते हैं | उसमें आप मुख्य रूप से धर्म लीजिए | धर्म करते हैं किन्तु आज्ञापालन के रूप में करते हैं | शास्त्र की आज्ञा, गुरुजनों की आज्ञाका पालन आप करते हैं | उससे हमारे कर्म की शुद्धि होती है | कर्म की शुद्धि होगी तो उसका प्रभाव अन्तःकरण पर पडे़गा | कर्म शोधक जो साधन है उसको नहीं किया तो आगे की भूमिका नहीं बनेगी | साधन की इमारत खडी़ करने के लिए हमारे पास धर्म की भूमिका चाहिए | धर्म हमारे यहाँ एक गम्भीर साधन है क्योंकि जीवन में वह रहता ही रहता है, उसको छोड़ नहीं दिया जाता | धर्म है वह सत् का विवर्त है | इसमें बहिरंग धर्म है, अन्तरंग धर्म – उपासना है और परम अन्तरंग धर्म – योग है |
‘अयं तु परमो धर्मो यद् योगेनात्म दर्शनम् |’
याज्ञवल्क्य स्मृति में ऐसे बताया गया | इसको हमने परम्परागत् साधन में रखा है | और जब हम धर्मानुसार कर्म करते हैं तब अन्तःकरण शुद्ध होता है |
बन्दूक गन्दी है, उसमें जंग लगी हुई है तो आप उसमें ठसा-ठस गोलियाँ भर दीजिए और चलाइये, ठीक नहीं चलेगी इसलिए उसकी सफाई करना जरूरी है | जो लोग बन्दूक का प्रयोग करते हैं वे लोग जानते हैं | तो एक लोहे की शलाका लेते हैं और उसमें कपडा़ लपेटते हैं और कपडे़ में कुछ द्रव्य लगाया जाता है रसायन आदि, तब शलाका को नली में डाल-डाल कर साफ करते हैं | चमकाते हैं | तो आप यह समझ लीजिए बन्दूक आपका अन्तःकरण है | अब जो कर्म शोधक साधन है वह ऐसे ही है जैसे बन्दूक की सफाई | शोधक माने स्वच्छ करनेवाला, पवित्र करनेवाला |
उसके बाद जो ‘करण शोधक साधन’ है, बहिरंग साधन है वह ऐसे हैं जैसे बन्दूक में गोली भरना | और आप लक्ष्य पर जो निशाना लगाते हैं, उसको बोलते हैं ‘पदार्थ शोधक साधन, अथवा अन्तरंग साधन’ | और जब लक्ष्य भेद कर देते हैं – सीधे जाकर गोली लक्ष्य के साथ एक हो जाती है उसे बोलते हैं ‘ साक्षात् साधन’ |
2)दूसरा आता है बहिरंग साधन | इसको करण शोधक साधन भी कहते हैं | ये बाहर नहीं रहता, अन्दर ही रहता है | इसमें विवेक है, वैराग्य है, षट्-सम्पत्ति है और मुमुक्षा है | जब आप कर्म ठीक-ठीक करते हैं तो विवेक उत्पन्न होता है |
लोक परीक्षा की शक्ति को ‘विवेक‘कहते हैं | जो हो रहा है चारों तरफ से, उसे बडी़ गहराई से, पैनी नजरों से देख रहे हैं कि यहाँ कुछ नहीं है | यह अनित्य है, परिवर्तनशील है | शाश्वत् सुख की प्राप्ति इससे नहीं है | ये विवेक है | वेदान्तों में नित्यानित्य विवेक प्रथम कोटि है और फिर उसके बाद सत्य और मिथ्या का विवेक है |
”ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येत्येवंरूपो विनिश्चयः |
सोSयं नित्यानित्यवस्तुविवेकः समुदाहृतः ||”(वि.चू.२०,२१)
‘ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है’ ऐसा जो निश्चय है यही ‘नित्यानित्यवस्तु विवेक’ कहलाता है |
वैराग्य में तो ब्रह्मलोक पर्यन्त के सुख को तुच्छ कर दिये जाते हैं | सृष्टि को शून्यवत् देखना ही वैराग्य है | जो वास्तविक वैराग्य होता है उसमें प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति के साथ में उदासीनता है, राग-द्वेष है नहीं | प्रत्येक व्यक्ति से उदासीनता के साथ एक सहनशीलता भी आती है | जिसमें सहनशीलता है उसमें ही समझना कि सच्चा वैराग्य है | यह जो षट्-सम्पत्ति है यहाँ, यह वैराग्य के विलास के रूप में, भगवान् शंकराचार्यजी ने वर्णन किया है | उसमें बताया ‘शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान |
षट्-सम्पत्ति
१)शम अर्थात् शान्ति, शान्ति अर्थात् जो विकार आते हैं जीवन में काम-क्रोध आदि वह शान्त हो गये हैं | यह एक सद्गुण है |
२)दम को कहेंगे दान्त, दान्त अर्थात् इन्द्रिय विक्षेप की शान्ति |
३)उपरति है कर्म आधिक्य के विक्षेप की शान्ति | किसी-किसी को कर्म करने का एक नशा होता है, तो कर्म ही करते रहते हैं और दूसरों को बोलते हैं हम इतना काम करते हैं | उसमें वह अपने आपको देखना भूल ही जाता है | उपरति में कर्म की अधिकता की शान्ति हो जाती है | वह निवृत्ति पसन्द करता है |
४)तितिक्षा में जो शरीर के कष्ट आते हैं उनको सह लेता है | उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं करता | सब दुखों को बिना प्रतिकार किये सह लेना और आगे के लिए कोई चिन्ता नहीं करना और पीछे को लेकर कोई विलाप नहीं करना | ऐसी सहनशीलता को बोलते हैं तितिक्षा और यह वैराग्य का एक परिपक्व रूप है |
५)श्रद्धा – शास्त्र और गुरु वाक्य में सत्य बुद्धि की जो अवधारणा है उसको श्रद्धा कहते हैं | श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है | श्रद्धा से उपासना ही, भक्ति ही नहीं होती, धर्म भी श्रद्धा से होता है | शिष्य की जब श्रद्धा बहुत प्रबल होती है तो उसका चित्त, उसकी अभिमान की कणिका, अहंकार की कणिका द्रवित हो जाती है | यदि गुरु के अनुग्रह से वह शिष्य में किसी एक अनुराग का, श्रद्धा का प्राबल्य होता है तो गुरु का पूरा अनुग्रह प्रकट हो जाता है | शिष्य की श्रद्धा और गुरु का अनुग्रह, इन दोनों को मिलाकर एक नाम दिया जाता है शास्त्र में ‘शक्तिपात’, तो शक्तिपात और कुछ नहीं होता |
६)समाधान चित्त में जो चंचलता है, मनोराज्य है, नाना संकल्प विकल्प है उसकी शान्ति को समाधान कहते हैं |
मुमुक्षा अर्थात् मोक्ष की इच्छा | मतलब कहीं बन्धे हुए हैं, उसीसे छूटना चाहते हैं बस यही मुमुक्षा है |
“अहंकारादिदेहान्तान्बन्धानज्ञानकल्पितान्
स्वस्वरूपावबोधेन मोक्तुमिच्छा मुमुक्षुता ||”
(वि.चू.28)
अहंकार से लेकर देह पर्यन्त जितने अज्ञान-कल्पित बन्धन है, उनको अपने स्वरूप के ज्ञान द्वारा त्याग ने की इच्छा ‘मुमुक्षुता‘ है |
अपने स्वरूप के अवबोध से उस बन्धन से हम छूट जायें – यह मोक्ष की जो इच्छा है यही ‘मुमुक्षा‘ है |
3)अन्तरंग साधन या पदार्थ शोधक साधन है श्रवण, मनन, और निदिध्यासन |
श्रवण – चतुर्थ पुरुषार्थ जो मोक्ष है, वह प्रमाण विभाग में खडा़ हुआ है उसमें श्रवण की आवश्यकता है | जब आप प्रमाण पूर्वक श्रवण करेंगे तब शुद्ध विचार की भूमिका बन पायेगी | जो त्वं-पदार्थ है, तत्-पदार्थ है, अर्थात् जीव क्या है? ईश्वर क्या है? प्रतीयमान जगत् क्या है? इसको बोलते हैं ‘पदार्थ शोधन‘ | यह जो अन्तरंग साधन है, उसमें जिस लक्ष्य की ओर हम चल रहे हैं वह पदार्थ क्या है यह बात समझ में आती है |
यहाँ जो शास्त्रीय ब्रह्म होगा, ब्रह्म-तत्त्व का निरूपण है वह शास्त्रानुसार होगा | अशेष वेदान्तों में ब्रह्मात्मैक्य ही तात्पर्य है ऐसी बुद्धि जिसको प्राप्त हो गयी है तो उसीको बोलेंगे श्रवण | श्रवणमात्र से अविद्या की निवृत्ति होती है और मोक्ष होता है |
मनन – श्रवण के बाद यदि हमारी बुद्धि में कोई संशय है, विपर्यय बना हुआ है तो मनन और निदिध्यासन करना पड़ता है | प्रतिबन्ध है, रोग है तो उसको निवृत्त करने के लिए मनन करो | श्रवण करोगे तो मनन होगा ही |
मनुष्य जिसके द्वारा मनन करता है, उसे मन कहते हैं | वास्तव में यह मनुष्य नाम भी इसीलिए पडा है क्योंकि यह मनन करने में समर्थ है |
श्रवणादि अन्तरंग साधन है क्योंकि यह आत्मा के स्वरूप के बोधक है | श्रवण के बाद जब मनन हम करते हैं तो तत्-पदार्थ की और त्वं-पदार्थ की स्पष्टता होती है कि वह है क्या | क्योंकि, जानना है, आप उस पर जो़र रखते हैं, ज्ञान पर जो़र रखते क्योंकि ज्ञान ही अज्ञान को निवृत्त करेगा |
निदिध्यासन अर्थात् ध्यान करने की इच्छा | उसका ध्यान तो हो नहीं सकता लेकिन ध्यान करने की इच्छा है, तो यहाँ ध्यान है वह चिन्तन है, धारा प्रवाह चिन्तन चलता है | तो उससे जबर्दस्त हमारे जीवन में परिवर्तन आता है क्योंकि वह हमको अन्तर्मुख करता हुआ चला जाता है और जितने भी विघ्न, प्रतिबन्ध शेष है वह निवृत्त होते जाते हैं | जब यह निवृत्त हो जाते हैं तो साक्षात् साधन हमारे जीवन में आता है |
4)साक्षात् साधन – जो त्वं पदार्थ अर्थात् जीव है, तो त्वं-पदार्थ के अर्थ को, और तत्-पदार्थ अर्थात् ईश्वर या ब्रह्म है, उनके अर्थ को एक लखा दे, उनका एकत्व लखा दे, उसको बोलते हैं साक्षात् साधन | अर्थात् उनको साक्षात् कर दे, साक्षात् अपरोक्ष करा दे |
उत्तर – काल में क्रम की संवित् है, देश में विस्तार की संवित् है, तो द्रव्य में नाम-रूप है, और उसमें कार्य-कारण का विचार है |
कार्य कारण का भी विचार आप नहीं कर पाते | बच्चों से पूछते है न, पहले मुर्गी हुई कि अण्डा, पहले बीज हुआ कि वृक्ष?आपने देखा ही नहीं कि पहले कौन हुआ तो आप चकरा जाते हैं | बीज और वृक्ष कौन पहले हुआ होगा? यह कार्य कारण का विचार है – यह भी आपकी बुद्धि से परे है, इसको भी आप नहीं देख सकते |
ईश्वर की चर्चा जाने दो | पहले यहाँ जो दिख रहा है, देश, काल, और वस्तु उसीका जरा अपनी बुद्धि से विचार कर लो | बुद्धि जो छोटे से ‘मैं‘ के साथ जुडी़ हुई है – परिच्छिन्नता में बैठी है वह द्रव्य को लेकर कार्य-कारण का विचार भी सम्यक रूप से नहीं कर पाती |
शरीर कैसे बना?
यदि कहते हो कि शरीर कर्म से बना तो, पहले कर्म था कि पहले शरीर था? क्योंकि शरीर के बिना तो कर्म हो नहीं सकता | यह भी बताया गया कि, जो हम धर्माधर्म करते हैं उस धर्माधर्म के अनुसार शरीर मिलता है |
इस प्रकार जब मनुष्य की बुद्धि कार्य-कारण का विचार करने लगी, तो वह भी नहीं कर पियी | तब वहाँ शास्त्र आये उसकी सहायता के लिए | किन्तु शास्त्र की तो लीला ही अद्भुत है | उन्होंने हमें बताया कि धर्माधर्म से शरीर और शरीर से पुनः धर्माधर्म होता है | उसे समझ कर हम धर्माधर्म में तो प्रवृत्त हुए किन्तु पहले कौन और बाद में कौन यह गुत्थी हमारी तब भी नहीं सुलझी | हमारी बुद्धि द्रव्य को देखकर, किसी भी घटना परिस्थिति को देखकर कार्य-कारण का विचार आवश्य करती है |
कार्य-कारण वास्तविक होता तो हमें दिखता | हम अनुमान भी नहीं कर पाते | और, शास्त्र जो कार्य-कारण बताते हैं, वह हमें कार्य-कारण भाव से ऊपर उठाने के लिए बताते हैं | अतः धर्माधर्म से शरीर की उत्पत्ति यह अध्यारोप करके पश्चात् उसका अपवाद भी कर देते हैं | कर्म से शरीर और पुनः उस शरीर से जो कर्म करेंगे, उससे पुनः शरीर यह बताया और कर्म का निषेध भी कर देते हैं |
गीता में आप चौथे अध्याय में देखिये –
“ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः||“(गी.४/१९)
जिसके समस्त कर्म ज्ञान रूप अग्नि के द्वारा भस्म हो गये हैं, उसको बोधवान् पुरुष पण्डित कहते हैं |
“कर्मण्यभिप्रवृतोSपि नैव किञ्चित्करोति सः|“(गी.४.२०)
वह सम्पूर्णतया कर्म करते हुए भी वास्तव में कुछ नहीं करता|
“ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा|“(गी.४.३७)
उसी प्रकार ज्ञान रूप अग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर देता है |
इस प्रकार शास्त्र ही धर्माधर्म बताता है और कारण भी और शास्त्र उसको काट भी देता है | अध्यारोप का अपवाद कर देता है | जो आपकी बुद्धि में थोपा गया था, उसको हटा देता है | ये शास्त्र की महिमा है | ये शास्त्र की अपूर्वता है |
“यावद्धेतु फलावेशस्तावद्धेतुफलोद्भवः|
क्षीणे हेतुफलावेशे नास्ति हेतुफलोद्भवः|“(मा.का.४.५५)
जब तक फल और हेतु का आग्रह है तब तक ही हेतु और फल की उत्पत्ति है | हेतु और फल का आवेश क्षीण हो जाने पर फिर हेतु और फल रूप संसार की उत्पत्ति भी नहीं होती |
कहा कि जब तक हेतु अर्थात् कारण और फल अर्थात् कार्य – तो कारण और कार्य – हेतु और फल इसके विचार में आपकी बुद्धि आविष्ट है तब तक वह ब्रह्म का विचार नहीं कर सकती |
उ. ये सब वस्तुएँ जिसमें खडी़ हुई हैं, वह देश तो सच्चा होगा? कहा नहीं – देखो तुम किसे देश कहते हो? दैर्घ्य और विस्तार को | लम्बी-चौडी़ की जो संवित् दिमाग में बनती है, प्रत्यय बनता है, ज्ञान बनता है, उसे ‘देश‘ कहते हैं |
अच्छा! कहा कि तुम देख लो, ये आकाश कितना बडा़ है | इस आकाश में कहाँ से पूर्व प्रारम्भ हुआ, ढूँढ़ने जाओ तो, आपको पूर्व का प्रारम्भ कहीं नहीं मिलेगा | आकाश में ढूँढ़ना, धरती में नहीं ढूँढ़ने लगना | क्योंकि, धरती भी आकाश में है | आकाश में टंगी हुई है, सूर्य-चन्द्रादि की तरह, एक बिन्दु जैसी |
ये आकाश क्या है?
भगवान् की नाभि है, तो भगवान ये आकाश जितना दिखता है उतने ही बडे़ नहीं है, और उससे भी परे भगवान् है |
आकाश को लेकर जो आप पूर्व-पश्चिम बोलते हैं, वह किस आधार पर बोलते हैं? पूर्व में हम जायेंगे तो ऐसा होगा, क्या ऐसा कुछ निर्धारित है? कहाँ है पूर्व और कहाँ है पश्चिम?
आप जहाँ बैठे हैं, वहीं से कल्पना करते हैं कि, हमसे यह पूर्व और यह पश्चिम, यह उत्तर और यह दक्षिण | बाकी आप आकाश में पूर्व की आदि ढूँढ़ ने जायें तो आपको नहीं मिलेगी | पश्चिम का अन्त ढूँढ़ ने जायें तो आपको नहीं मिलेगा | आप जहाँ बैठे हैं वहाँ से पूर्व में सूर्य उदय हो रहा है | जहाँ अस्त हो रहा है वह पश्चिम है | तो इन द्रव्य-वस्तुओं को देखकर, घटनाओं को देखकर, आप पूर्व पश्चिम की कल्पना कर रहे हैं |
पूर्व पश्चिम नहीं है | पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, और ईशान तथा ऊपर, नीचे हमारे यहाँ तो दस दिशाएँ मानी गयी है | तो दसों दिशाओं में आप किसी भी दिशा का ओर छोर ढूँढि़ये तो आपको नहीं मिलेगा |
आप जिसे दिशा कहते हैं, वह क्या है?
कहा कि – एक कल्पना है | व्यवहार चलाने के लिए एक कल्पना कर ली गयी | और आप पहले यह देखिये, कल्पना हो कहाँ रही है? यदि विचार उठे कि, कितना बडा़ आकाश है और उसमें पूर्व आदि कहाँ हैं – तो आप आँखें बन्द करके बैठ जायेंगे और सोचेंगे – उसके बाद-उसके बाद-उसके बाद – ऐसे अपनी कल्पना या भावना को फैलायेंगे | अपनी बुद्धि में असीम को पकड़ने का बहुत प्रयास करेंगे |
आप जो व्यष्टि है, वह आँखें बन्द करके समष्टि की एक कल्पना करते हैं कि बहुत बडा़ देश है | तो, वह जो अनादि अनन्त देश है वह कहाँ है? अनादि अनन्त देश आपकी कल्पना में है |
उ. अब काल का विचार करते हैं | काल के हमने टुकडे़-टुकडे़ किये | उसमें युग बनाये, उसमें संवत्सर, महीने, पक्ष, सप्ताह, दिन ऐसे उसमें टुकडे़ हम करते हैं | पक्ष के बाद सप्ताह, सप्ताह के बाद दिन, दिन में फिर घण्टे, घण्टे में मिनट, मिनट में सेकैण्ड ऐसे हम बनाते गये | पुनः कहा हम छोटे नहीं हम बडे़ काल का विचार करेंगे |
काल कब से?
क्या कैलेन्डर बना तब से काल या उसके पहले से भी है?
कैलेन्डर तो कल्पित है |
क्यों कल्पित है?
क्योंकि एक हिन्दु का कैलेन्डर होगा एक पारसी का होगा, एक ईसाई का होगा, ऐसे बहुत प्रकार के कैलेन्डर होंगे | तो काल में, परिच्छिन्न मैं में बैठकर, ये सब कल्पना आप करते हैं |
काल कब से प्रारम्भ हुआ इस पर आप अपनी बुद्धि को फैलायेंगे |
किसमें फैलायेंगे?
कल्पना में फैलायेंगे | बहुत दूर तक आप कल्पना को फैलाते-फैलाते कहेंगे कि पता नहीं बुद्धि वहाँ पहुँच नहीं पा रही है | तब शास्त्र ने कहा – यह काल अनादि है | अनादि अर्थात् उसका प्रारम्भ कब से हुआ, वह आप नहीं जानते | जब आप यह कहते हैं कि हम नहीं जानते, तब वहाँ अज्ञान खडा़ है | इसलिए हमारे यहाँ सब का मूल अज्ञान बता दिया जाता है कि जिससे यह सब विवेचन छोड़कर अपने आत्म चैतन्य का, परमात्मा का विचार करें |
कब से है काल?
कहा अनादि काल से | अनादि माने हमारी कल्पना जहाँ तक पहुँच नहीं पायी, उसके भी पूर्व काल था | अच्छा! और कब तक रहेगा? काल के अन्त का आप जब विचार करते हैं, तो कहते हैं कि पता नहीं वहाँ तक हमारी बुद्धि पहुँच नहीं पा रही है | तब शास्त्र बता देते हैं काल अनन्त है’ | अनादि है, और अनन्त है काल | लेकिन ये काल की बात ध्यान से सुनना |
काल की अनादिता और काल का अनन्तत्व कहाँ है? प्रत्यक्ष में नहीं है | वह बुद्धि की कल्पना में है | आप आँखें बन्द करके ऐसा सोचते हैं, काल कहाँ से शुरु हुआ? टुकडे़-टुकडे़ काल को, आप कुछ समझ पाते हैं; लेकिन बिना खण्ड का, बिना टुकडे़ का जो अखण्ड काल है, वह कहाँ है? और क्या आप उसको जान पा रहे हैं? क्यों नहीं जान पा रहे?
क्योंकि, अखण्ड काल अपने अधिष्ठान आत्म चैतन्य से, ब्रह्मचैतन्य से एक होकर रहता है और मन बुद्धि की वहाँ पहुँच नहीं है | जब उसके टुकडे़ कर दिये जाते हैं तब आप वहाँ अपनी मन बुद्धि को पहुँचाते हैं | अथवा ऐसे कहिए कि मन-बुद्धि ही टुकडे़ कर देते हैं |
काल के टुकडे़ कहाँ दिख रहे हैं?
जहाँ वे हैं नहीं | कल्पना से काल के टुकडे़ बनाये गये |
तो काल क्या है?
काल क्रम की एक संविद् है | संविद् का अर्थ होता है ज्ञान, प्रत्यय |
तो क्रम की एक संविद् बनायी गयी, एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन इत्यादि, फिर उसके, उसीमें-से बनाये गये मास, संवत्सर | शास्त्र में काल का बडा़ लम्बा चौडा़ विचार है | वहाँ शास्त्रों में छोटे से छोटा विभाग और बडे़ से बडा़ विभाग बताया है | वैसा विभाग बुद्धि को सूक्ष्म करने के लिए बताया |
वेदान्त की दृष्टि से इस काल का जब हम लोग विचार करते हैं तो काल अज्ञान ही सिद्ध होता है | काल एक कल्पना है, क्योंकि हमने उसके बारे में विचार नहीं किया | हमारी कल्पना में ही काल रहता है | कितना बडा़ है काल या कितना छोटा है काल – विशाल काल या सूक्ष्म काल | तो नैरन्तर्य क्रम एक बनता है जो दिमाग या मन लाकर खडा़ करता है, जोड़ता है, उसीको हम काल कह देते हैं |
आप इसी वर्तमान में जो हैं उसीका विचार क्यों नहीं करते?
पूर्व और पश्चात् को लेकर जो विचार करते हैं वही काल है| वही अज्ञान काल का भ्रम है |
उत्तर –
1)अस्मितानुगत् समाधि –
अस्मितानुगत् समाधि, अन्त:करण की एक स्थिति है और प्रयत्न पूर्वक बनाकर लायी गयी है | प्रयत्न पूर्वक बनाकर लायी गयी है तो छूट भी जायेगी लेकिन वह स्थिति बहुत अच्छी है, उसकी निन्दा नहीं है क्योंकि यह चित्त की चंचलता को दूर करती है – ‘सिद्धं तु निवर्तकतत्त्वात्’ जहाँ-जहाँ निवृत्ति है वहाँ-वहाँ ठीक है लेकिन यह स्वरूप स्थिति नहीं है, यह ब्रह्मात्मैकत्व बोध नहीं है |
2)अहंग्र उपासना –
उपासना में आवृत्ति होती है | उसमें ईश्वर के जितने गुण धर्म होते हैं वह अपने में आधान करके ध्यान करना
है –
जैसे ‘मैं सर्वव्यापि हूँ आकाश के समान, मैं अपरिच्छिन्न हूँ, मैं अखण्ड हूँ, मैं अद्वितीय हूँ | तो भाव प्रत्यय बनता है, उसको समझ नहीं है कुछ कि, अखण्ड क्या है, अद्वितीय क्या है, अपरिच्छिन्न क्या है | इसमें आवृत्ति है, अर्थात् इसमें भाव प्रत्यय वह बारम्बार बनाता है
अहंग्र उपासना में वह वृत्ति छूटती है फिर लाता है,.फिर छूटती है फिर लाता है ।
3)निदिध्यासन
अब जो निदिध्यासन है, यह न स्थिति है, न उपासना है, न ध्यान है – यह चिन्तन है । यहाँ जो चिन्तन चलता है वह धारा प्रवाह चिन्तन चलता है । यह धारा प्रवाह चिन्तन अनात्मा को काट देता है, अनात्मा माने अज्ञान को काट देता है । इसलिए बोलते हैं कि सजातीय वृत्ति प्रवाह ।
‘विजातीय वृत्ति, अनात्माकार वृत्ति तिरस्कार पूर्वक सजातीय वृत्ति परवह्णं निदिध्यासनम्‘ ।
निदिध्यासन एक प्रवाह है क्योंकि यहाँ अनुसन्धान है । जो श्रवण किया है और मनन किया है उसके अनुसार, श्रवण मनन पूर्वक निदिध्यासन होता है यहाँ, ऐसे एक प्रवाह चलता है ।
ऐसे कहो चुप होकर बैठे हैं महाराज! एक जगह पर तो उसका नाम कह दिया समाधि, एक जगह उसका नाम कह दिया अहंग्र उपासना, एक जगह कह दिया ध्यान, एक जगह कह दिया निदिध्यासन – ऐसा नहीं होता है ।
१)एक योग दर्शन का विभाग है – समाधि
२)एक उपासना का विभाग है – अहंग्र उपासना
३)एक ज्ञान का विभाग है निदिध्यासन। यहाँ पर प्रमाण चाहिए ।
उत्तर – श्रुति कहती हैं
“त्यागेनैकेSमृतत्वमानशु:”
त्याग से ही अमृतत्त्व को प्राप्त कर सकते हैं|
जो वैदिक मुमुक्षु है,
जो सनातन धर्मी मुमुक्षु है, वह त्याग करता है|
जो वैदिक मुमुक्षु होगा वह त्याग और वैराग्य युक्त होगा|
जहाँ वैदिक धर्म आता है वहाँ त्याग के बिना बात चलती ही नहीं|
जो आपको यह आश्वासन देते हैं कि घर में ही रह कर ब्रह्म विचार करो तो आपको बहुत अच्छा लगता है कि, यह महात्मा बहुत अच्छे हैं त्याग करने की कोई बात नहीं कहते हैं|
श्रीउडि़या बाबाजी महाराज कहते हैं कि ‘मेरा’ का त्याग वैराग्य से और ‘मैं’ का त्याग ज्ञान से होता है| उनके शब्दों में बोलते थे –
“देह का त्याग और गेह का त्याग”
भगवान् शंकराचार्यजी कहते हैं
“अन्तस्त्यागो बहिस्त्यागो विरक्तस्यैवयुज्यते”
जो विरक्त है, जो वैराग्यवान है वह अन्त: त्याग भी करेगा और बहि त्याग भी करेगा|
उ.किसी भी वस्तु जैसे भाव – चित्त-विचार या अहं की शुद्धि का अर्थ उसका उत्कर्ष, पर्यवसान या चरम सीमा ही है और वही उसका त्याग भी है। ध्यान रहे कि त्याग पवित्र-शुद्ध का होता है, अशुद्ध, अपवित्र (चित्तादि) का नहीं। जैसे धर्म का त्याग तब होगा जब धर्म का शुध्द होते-होते वैराग्य हो जायेगा। वैराग्य धर्म का शुद्ध परिष्कृत रूप हैं, वैसे ही वैराग्य का त्याग तब होगा जब वैराग्य शुद्ध होते-होते दृश्य प्रपंच के मिथ्यात्व के निश्चय का रूप ले लेगा। ‘मिथ्यात्व निश्चय’ का पर्यवसान दृश्य के अत्यंताभाव में है और अत्यंताभाव की चरम सीमा एक अद्वितीय तत्त्व (प्रत्यगात्मा या शोधित अहं) में है। आप चाहे धर्म, भाव, चित्त, विचार या अहं की किसी भी भूमिका में हो उसकी शुद्धि या परिमार्जन (परित्याग) से आगे के सोपान की गति, सद्गति या मंगल के लिए सत्संगति ही एक मात्र उपाय है।
उ. प्रेम जीवन और मृत्यु से भी बडा़ है क्योंकि, वह आत्म-धर्म है |
घटनाएँ, परिस्थितियाँ, कोमल और रुक्ष व्यवहार, प्रेम को घटाने में समर्थ है क्या?
किसी के कुछ कह देने से यदि तुम्हारा प्रेम सूखने लगता है तो, वह प्रेम नहीं कुछ और है |
चिडि़यों की चहचहाहट, मक्खियों की भिनभिनाहट, मच्छरों की भुनभुनाहट को जैसे तुम समझने की कोशिश नहीं करते हो, वैसे ही किसी संस्कार या और परिस्थितिवश यदि कोई कुछ कहता है तो, उससे अपने जीवन को प्रभावित मत होने दो
क्योंकि, प्रेम जीवन और मृत्यु से बडा़ है और तुम्हारे हृदय को स्निग्ध रखने को पर्याप्त है |
रुक्ष होते हैं खुदगर्ज, तुम्हें रस के, दिव्य रस के प्रवाह से दिल को आप्लावित रखना है |
जहाँ प्रेम है वहाँ सेवा है, असंगता भी वहाँ है |
उ.महाराजश्री सनातन की सोलह कलायें बताते हैं –
1)आत्मा सत् है,
अतः इस सिद्धान्त के अनुसार चार कलाएँ सिद्ध होती हैं –
१)हम अब तक कभी मरे नहीं हैं, आगे मरेंगे नहीं, इसलिए मृत्यु का डर अपने स्वरूप के धर्म के विपरीत है | निर्भय होकर अच्छे काम करने चाहिए |
२)जैसे हमारी आत्मा अमर है, वैसे दूसरों की भी है | अतः किसी के मन में मृत्यु का भय उत्पन्न करना अधर्म है | किसी की मृत्यु का निमित्त मत बनिए |
३)आत्मा सदा रहने वाला है अतः जीवन निर्वाह के लिए उद्योग करना धर्म है |
४)अपने ही समान दूसरों को जीवित रखने का प्रयत्न धर्म है |
इन दो कलाओं में उन सभी तत्त्वों का समावेश हो जाता है, जो जीवन उपयोगी हैं |
निवास स्थान, अन्न, वस्त्र, औषध आदि की सब के लिए सुविधा करना धर्म है |
2)आत्मा चेतन है
कोई भी अपने को जड़ अनुभव नहीं कर सकता | अनुभव ही तो चेतन है, अतः १)किसी को अज्ञानी बनाना, ठगना, धोखा देना अधर्म है |
२)स्वयं अज्ञानी-बेवकूफ रहना अथवा ज्ञान के क्षेत्र में ठगा जाना अर्थात् पाखंड का आखेट हो जाना अधर्म है | ३)सबको ज्ञान देना, पाठशाला, वाचनालय, सत्संग-सभा आदि की सुविधा देना धर्म है |
४)स्वयं भी ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना धर्म है | जो ज्ञान है, उसकी रक्षा कीजिये, बढा़इये, और जो नहीं है, उसे प्राप्त कीजिए |
3)आत्मा आनन्द स्वरूप है, अतः
१)किसीको किसी प्रकार दुःख मत दीजिए |
२)स्वयं किसी भी कारण से दुःखी मत होइये |
३)स्वयं सुखी रहिए |
४)दूसरों को सुख दीजिए |
4)आत्मा अद्वैत है, अतः
१)समाज में फूट मत डालिए |
२)स्वयं किसी से अलगाव का भाव मत रखिए |
३)सबसे मिलकर रहिए |
४)सब में मेल-मिलाप कराने का प्रयत्न कीजिए |
इन सोलह कलाओं में सामान्य धर्म के सब तत्त्वों का समावेश हो जाता है |
महाराजश्री
उत्तर : शरीर से धर्माचरण हो।
२. इन्द्रियों में संयम हो।
३. मन में सद्भावना हो।
४. बुद्धि में विवक हो।
५. अहं अनहं हो, अहं निरहं हो।
ऐसा जीवन ही जीवन है।बिना सदाचरण के वेदान्त कुछ समझ में नहीं आता और इसलिए धर्मकी महिमा है क्योंकि धर्म ही भूमिका बनायेगा आपके लिए वेदान्त विचार की।
उ. अंग्रेज पढे़-लिखे लोग हमसे बोलते हैं जो चीज आपकी समझ में नहीं आती उसको आप अनादि बोलते हो |
ये बात बिलकुल नहीं है, भला! हम बिलकुल समझ बूजकर तब किसीका नाम अनादि रखते हैं | अज्ञात को हम अनादि नहीं बोलते हैं, ज्ञात को ही अनादि बोलते हैं-कैसे?
आप देख लो, क्या आपके अनुभव के क्षेत्र में काल की आदि आ सकती है? जिस समय काल शुरु हुआ उस समय को आप अपने अनुभव का विषय बना सकते हैं? आपकी काल की आदि को प्रत्यक्ष कर सकती है कि नहीं?उसके पहले, उसके पहले, उसके पहले, उसके पहले और उसके बाद, उसके बाद, उसके बाद – तो पूर्ववर्तित्त्व और उत्तरवर्तित्त्व बौद्ध ज्ञान से इसका बाध नहीं हो सकता |
जब हम अनादि आदि बोलते हैं तो उसका अर्थ यह होता है कि इन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं होता किन्तु काल्पनिक सत्य है अर्थात् हमारी बुद्धि में बैठा है, मन में बैठा है, भरा हुआ है |
उ.देखो, केवल तीन ही स्थिति हैं |
१)या तो तुम साँप को सच मानो और रज्जु का अस्तित्व ही मत मानो तो ठीक है, तुम अपनी भ्रान्ति में बिलकुल परिपूर्ण हो |
सच्चा जड़दर्शी, भूत-भौतिक-दर्शी वह है जिसकी दृष्टि में चैतन्य नाम की मूल धातु कोई नहीं है, सर्प-ही-सर्प है रज्जु कुछ नहीं है |
पैसे को भी सर्प बोलते हैं – जो एक दुकान से दूसरी दुकान जाये | यह पैसा, यह सोना, यह चाँदी, यह नोट का बण्डल, यह खाना, यह पीना – यह सब सर्प है, सरक रहा है; यह सब संसार रूप है – संसरणात् |
२)दूसरी सच्ची दृष्टि यह है कि रज्जु-ही-रज्जु है, सर्प बिलकुल है ही नहीं, चैतन्य-ही-चैतन्य है |
एक ही चीज है – बेवकूफ ने उसका नाम सर्प रख रखा है और तत्त्वज्ञानी उसको रज्जु रूप में जानता है |
तो एक ब्रह्म-चैतन्य, आत्म-चैतन्य, अखण्ड परिपूर्ण है और साँप-वाँप न कभी पैदा हुआ, न है और न होगा –
एक तत्त्वदर्शी, परमार्थदर्शी, एक चैतन्यदर्शी का यह दृष्टिकोण है |
३)तीसरी दृष्टि इनके बीच की है | ये बीच में जितने हैं ये सब गडंबडा़ध्यायी हैं | गड़बडा़ध्यायी क्या है?
तो देखो, अभी दो टूक बात करते हैं – यह फकीरी की बात है, फकीरी की | क्या?
कि एक आदमी को साँप-ही-साँप दिख रहा था और दूसरा कोई जानकार आदमी था, तो उसने कहा – अरे भाई! यह तो रस्सी है, साँप नहीं है |
तो उसने सोचा कि हमको तो दिखता साँप है और ये भलेमानुष कह रहे हैं कि रस्सी है तो रस्सी में साँप लिपटा हुआ होगा | है न? भला बिना रस्सी के यह साँप कैसे लटकता,
कोई रस्सी का सहारा होगा, तो कोई चैतन्य आधार के रूप में होगा,
अधिष्ठान के रूप में होगा, सहारे के रूप में होगा और उसमें यह लम्बायमान सर्प लिपटा होगा |
तो यह सर्प जो है, सो रस्सी से मिलजुल कर लिपटा हुआ है – सर्प में रस्सी व्यापक होगी, सर्प का आधार होगी रस्सी |
अब ये बिचारे पहचानते तो है नहीं कुछ-का-कुछ सोचते रहते हैं |
असल में साँप में रस्सी है कि रस्सी में साँप है, ऐसा कुछ नहीं है, बिलकुल एक चीज है – मूर्ख के लिए साँप है और ज्ञानी के लिए रस्सी है,
तत्त्वज्ञ के लिए ब्रह्म है और अज्ञानी के लिए संसार है और बीच में?
बीच में थोडी़ ज्ञानी की मानी, अपनी मानी, क्या कि अपनी इन्द्रियों की मानी |
और ज्ञानी से सुन रखा है कि एक चैतन्य है तो, थोडी़ उसकी मानी और दोनों की खिचडी़ पकाकर के बोल दिया |
स्पष्टम्-स्पष्टम् बात यह है कि जब तक मूर्खता है तब तक जड़ता का अस्तित्व है, बेवकूफी में जड़ता का अस्तित्व है,
नहीं तो एक चैतन्य वस्तु है |
यह तत्त्वज्ञान का स्वरूप है |
श्री उडि़या बाबाजी
उ. अन्तःकरण की वृत्ति का भगवदाकार हो जाना ही भजन है।
भजन का दूसरा अर्थ सेवा है। सेव्य को पूर्ण सुख पहुँचाना, उन्हीं के सुख से अपने को परमानन्द होना- यह भी उनकी इच्छा के लिये नहीं अपने ही आनन्द के लिये, क्योंकि महापुरुशों को सेवा कराने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार सेव्य के तद्रूप हो जाना ही सेवा का प्रधान लक्ष्य है।
उ. व्यवहारिक दृष्टि से जगत् असत् नहीं है। इस दृष्टि से तो यह माया का परिणाम है और विनाशी दृष्टि से यह ब्रह्म का विवर्त है | (यह अपने भाव में ही भास रहा है।) जिसका आधार अभाव है वह वस्तु सत्य नहीं हो सकती। जैसे आकाश-कुसुम को हम सत्य नहीं मान सकते वैसे ही अभाव रूप् आकाश में स्थित यह विश्व सत्य नहीं हो सकता।
उ.पुरुषार्थ करते हुए भी सिद्धी-असिद्धी में भगवान् की इच्छा की प्रधानता समझनी चाहिये। यही भक्तों की मान्यता है। भगवान् की इच्छा मानकर पुरुषार्थ किसी भी काल में न छोड़े।
उ. समाधि निर्विकल्पावस्था है और बोध निर्विकल्प स्वरूप है, समाधि कर्ता के अधीन है और बोध अकृत्रिम है। निर्विकल्पावस्था में वृत्ति रहती है, भले ही वह लीन हुई रहे, किन्तु बोध में नहीं रहती। वह तो निर्विकल्प स्वरूप, सब प्रकार के विकल्पों से रहित, समाधि आदि से रहित तथा आदि, मध्य और अन्त से रहित है।
‘‘ निर्विकल्पस्वरुपात्मा सविकल्पविवर्जितः। सदा समाधिशून्यात्मा आदिमध्यान्तवर्जितः“।।
उ.देखनेवाले नेत्र भी तो संसार ही हैं | इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण से संसार सिद्ध नहीं हो सकता |
अनुमान प्रमाण तब माना जाता है जब वस्तु सामने न हो | संसार तो सामने है, इसलिए अनुमान की इसमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती |
उपमान, उपमा अन्य सदृश वस्तु की दी जाती है, जैस मुख की उपमा चन्द्रमा से | परन्तु इस संसार के समान कोई दूसरा संसार है नहीं, इसलिए उपमान द्वारा इसकी सिद्धि नहीं हो सकती |
शब्द प्रमाण भी तभी माना जाता है जब वस्तु सामने न हो, इसलिए उससे भी संसार की सिद्धि नहीं हो सकती |
ऐसा भी नियम नहीं है कि जो वस्तु सामने दिखायी दे वह हो ही |
मरुभूमि का जल सामने दिखायी देता है, परन्तु होता नहीं |
अतः यह निश्चय हुआ कि संसार मिथ्या है और मैं द्रष्टा सत्य हूँ, क्योंकि मैं तीनों अवस्था और तीनों कालों का साक्षी हूँ |
उ. उदासीनता, मस्ती और वैराग्य का बोध से कोई सम्बन्ध नहीं है | वे तो चित्त के धर्म है |
बोध से तो राग-वैराग्य दोनों ठण्डे पड़ जाते हैं, क्योंकि तत्त्वज्ञान होने पर किसी भी वस्तु या अवस्था की पृथक् सत्ता नहीं रहती | ऐसी अवस्था में वह राग या वैराग्य किससे करेगा?
राग वृत्ति भक्ति में रहती है, द्वेष वृत्ति संसारी या पामर में रहती है और
वैराग्य वृत्ति जिज्ञासु में रहती है |
राग, द्वेष और वैराग्य से जो विलक्षण वृत्ति है वह समवृत्ति बोधवान् में रहती है |
राग वृत्ति वैराग्य से, द्वेष वृत्ति उपेक्षा से और वैराग्य वृत्ति समवृत्ति से निवृत्त होती है |
तत्त्ववेत्ता में समवृत्ति रहते हुए भी नहीं रहती |
बोधवान् का किसी में राग नहीं होता, इसलिए उसे वैराग्य भी नहीं होता,
उसमें प्रवृत्ति नहीं होती, इसलिए उदासीनता भी नहीं होती | वह अपने को स्वयं ही जानता है |
मस्ती रहना शुद्ध बोध नहीं | मस्ती तो चिदाभास में रहती है, उसे साभास बोध कहते हैं | मस्ती का कारण प्रसन्नता है और प्रसन्नता सत्त्व गुण में होती है,
तथा बोधवान् गुणातीत होता है | उसमें मस्ती, उदासीनता और वैराग्यादि गुणरूप से नहीं, स्वस्वरूप होकर रहते हैं |
उसमें इच्छा नहीं इसलिए निरिच्छा भी नहीं, ग्रहण नहीं इसलिए त्याग भी नहीं, अज्ञान नहीं इसलिए ज्ञान भी नहीं तथा किर्या नहीं इसलिए निष्क्रियता भी नहीं |
वह सगुण नहीं इसलिए निर्गुण भी नहीं, उसमें दुःख नहीं इसलिए सुख भी नहीं, उसे द्वन्द्व नहीं इसलिए निर्द्वन्द्व भी नहीं | ये सब चित्त के धर्म है |
वह तो त्याग स्वरूप, ज्ञान स्वरूप है |
मस्ती या आनन्द तो निषेध करके होते हैं | ये निर्विकार चित्त में रहते हैं, स्वरूप में नहीं |
जिसे ज्ञान में आनन्द आता है वह जिज्ञासु है, बोधवान् नहीं | उसने जीवत्व को पूर्णतया मिटाया नहीं है |
जिसमें जीव-ब्रह्म आदि किसी प्रकार का अहंभाव नहीं है, जो व्यवहार में सब काम ठीक-ठीक करता है, परन्तु परमार्थतः सब का अत्यन्ताभाव देखता है तथा जिसकी दृश्य में मिथ्यात्व-बुद्धि भी निवृत्त हो गयी है उसे बोधवान् समझना चाहिए |
जिसके ‘कुछ हुआ है‘ और ‘कुछ नहीं हुआ’ ये दोनों भाव निवृत्त हो गये हैं वही बोधवान् है |
‘कुछ हुआ है‘ इससे व्यवहार सत्ता में राग रहता है और ‘कुछ नहीं हुआ’ इससे उसमें द्वेष रहता है |
परन्तु बोधवान् में ये दोनों नहीं रहते
‘कुछ नहीं हुआ‘ यह केवल जिज्ञासु को समझाने के लिए कहा जाता है,क्योंकि ‘प्रपंच हुआ है’ यह भाव अनात्म बुद्धि से होता है और ‘कुछ नहीं हुआ‘ यह आत्म बुद्धि से होता है |
दोनों में अहं बुद्धि रहती है | अर्थात् ये दोनों वृत्ति के कार्य है और आत्मस्वरूप वृत्ति से परे है | इसलिए बोधवान् में यह दोनों ही भाव नहीं रहते |
उ.हमको अनेक जन्मों से काम-क्रोधादि का अभ्यास पडा़ हुआ है, इसलिए विषयों में राग होने के कारण वह धीरे-धीरे निवृत्त होगा |
विष का तो हमें अभ्यास नहीं है, इसलिए उसका पता लगते ही उसमें प्रवृत्ति नहीं होती |
यह राग बडा़ प्रबल शत्रु है |
रुग्णावस्था होने पर जानते हुए भी कुपथ्य कर लेते हैं और अच्छे-अच्छे विद्वान भी इस दोष से नहीं बच पाते |
मेरा चालीस वर्ष का अनुभव है कि अभ्यास के बिना केवल ज्ञान से कोई चित्त को रोक नहीं सकता |
शरीर की शान्ति आसन से,
वाणी की शान्ति मौन से,
मन की शान्ति ध्यान से और
बुद्धि की शान्ति ज्ञान से होती है |
ज्ञान होने पर मन का बोध होता है, नाश नहीं होता |
इसलिए उपासक या बोधवान् सभी को मन की शान्ति के लिए नित्य ध्यान करना होगा |
शान्ति आत्मानुराग से होगी, केवल आत्मज्ञान से नहीं |यदि यह जानकर भी कोई अभ्यास नहीं करता तो उससे बडा़ पशु और कौन है |
“अनात्मबुद्धिशैथिल्यं फलं ध्यानात् दिने-दिने |
पश्यन्नपि न चेद् ध्यायेत् को परोSस्मात् पशुर्वद ||“
उ.ज्ञान के द्वारा किसी भी वस्तु का नाश नहीं होता, अपितु बाध (मिथ्यात्व निश्चय) होता है |
क्योंकि जिस वस्तु का नाश होता है उनका प्रध्वंसाभाव रहता है, परन्तु बाध होने पर उसका अत्यन्ताभाव (त्रैकालिक असद्भाव) हो जाता है |
उसकी तो तीनों कालों में सत्ता नहीं रहती |
जब सत्ता ही नहीं तो नाश किसका?
अतः इन शब्दादि विषयों की केवल प्रतीति रहती है |
नाश तो उसीका होता जिसकी पहले सत्ता हो |
परमार्थतः किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं है, क्योंकि आकाश में भासनेवाली ये सब वस्तुएँ आकाश रूप ही हैं |
जैसे आकाश की नीलिमा की अपनी कोई सत्ता नहीं होती, केवल प्रतीति ही होती है |
अतः तत्त्वज्ञान से शब्दादि विषयों का बाध ही होता है, नाश नहीं होता |
उ. ज्ञान अन्तःकरण को होता है और मुक्ति भी अन्तःकरण की ही होती है तथा ध्यान भी अन्तःकरण ही करता है |
यदि अन्तःकरण ध्यान नहीं करेगा तो विषय चिन्तन करेगा |
इस प्रकार इन्द्रियाँ विषयों में जायेगी तो संसार का चिन्तन होगा |
चिन्तन से वस्तु प्रकट हो जाती है |
जिस प्रकार भगवान् का चिन्तन करने से उनका साक्षात्कार हो जाता है,
उसी प्रकार संसार का चिन्तन करने से संसार में सत्यत्व-बुद्धि हो सकती है और फिर संसार में फँस जाना भी स्वाभाविक है |
ऐसा होने पर कोई बलवती वासना जन्म-मरण के चक्कर में भी डाल देगी,
क्योंकि वासना ही जन्म का कारण है |
जिज्ञासु के लिए तो ज्ञान की इच्छा ही मुख्य है,
परन्तु ज्ञान होने पर विषय-चिन्तन की निवृत्ति अर्थात् मनोनाश और वासना क्षय ही मुख्य है |
जिस प्रकार स्वप्न से जाग जाने पर भी उसकी स्मृति बनी रहती है वैसे ही ज्ञान होने पर प्रतीति की निवृत्ति नहीं होती | इसके लिए तो अभ्यास करना होगा |
बिना मनोनाश और वासनाक्षय हुए जड़भरत आदि की तरह पुनः जन्म लेना होगा |
बिना अभ्यास किये ब्रह्मानन्द की प्राप्ति नहीं होती |
जैसे किसी का पिता उसे एक लाख रुपया गडा़ बताकर मर गया, किन्तु जब तक वह खोदकर उसे प्राप्त न करे उसकी दरिद्रता नहीं जा सकती |
रुपये के केवल ज्ञान से काम नहीं चलेगा |
उसी प्रकार केवल ज्ञान से आनन्द की अभिव्यक्ति नहीं होती |
किसी धनी आदमी को जान लेने से दरिद्रता दूर नहीं होती, उससे प्रेम हो जाये तभी दूर होती है |
उ.पहले असंग-भावना करनी चाहिए |
इसमें निष्ठा हो जाने पर चराचर जगत् की अपेक्षा कर देने से हर समय आत्मचिंतन स्वाभाविक हो जायेगा | कोई कष्ट नहीं करना पडे़गा |
परन्तु यह स्थिति होती तभी है जब अपने-आप में प्रेम हो | अपने में प्रेम होना बडा़ कठिन है, क्योंकि चित्त जगह-जगह बँटा हुआ है | अतः दूसरों में तो आसक्ति हो जाती है किन्तु आत्मरति नहीं होती |
सब इस शरीर को ही हृष्टपुष्ट चाहते हैं अथवा स्त्री-पुत्रादि के लालन-पालन में लगे हुए हैं |
इससे सिद्ध होता है कि अधिकतर लोगों की आसक्ति अनात्मा में है |
अतः जब सब ओर से हटकर आत्मा में ही प्रेम हो तब समझो कि मेरा पुण्योदय हुआ |
यह तो निश्चय ही है कि सम्पूर्ण प्रपंच आकाश के अन्तर्गत है |
और जो वस्तु आकाश में होती है वह वस्तुतः होती नहीं क्योंकि उसके निमित्त और उपादान कारण का अत्यन्ताभाव है |
आत्मा में एक शक्ति-वृत्ति होती है | वह सम्पूर्ण प्रपंच को विषय करती है |
जितने भाव पदार्थ है वे अभाव के अन्तर्गत हैं | इसलिए पहले वह वृत्ति अभाव को ग्रहण करती है और फिर अभावाकार होकर अन्य पदार्थों को अनुभव करती है |
इस प्रकार अभाव वृत्ति भाव-पदार्थों की साक्षी है और आत्मा अभाव वृत्ति का साक्षी है |
इससे सिद्ध हुआ कि आत्मा सम्पूर्ण पदार्थों से असंग है | अभाव वृत्ति के साथ तादात्म्य को प्राप्त होने से ही उसे अन्य पदार्थों की प्रतीति होती है |
विवेक की दृढ़ता हो जाने पर सम्पूर्ण प्रपंच से असंगता का अनुभव होने लगे,
तो फिर समस्त प्रतीतियों की उपेक्षा करके वृत्तिसाक्षीरूप से अनुभव करने पर उसे अपना साक्षात् अनुभव होने लगता है |
इस प्रकार आत्मचिंतन के इच्छुक पुरुष को वह प्रतीति मात्र को आकाश-कुसुम के समान समझे और उसकी उपेक्षा करके स्वयं वृत्ति-साक्षी होकर स्थित रहे |