वेदान्त
अज्ञानी का विषय कर्म है और ज्ञानी का, विषय सर्वकर्मसंन्यासपूर्वक ज्ञाननिष्ठा है |
– आदि शंकराचार्य
धर्मज्ञान अभ्युदय फलवाला है, तथा वह अनुष्ठान की अपेक्षा रखता है | ब्रह्मज्ञान तो मोक्षरूप फलवाला है और वह अन्य अनुष्ठानों की अपेक्षा नहीं रखता है |
– आदि शंकराचार्य
जिसमें सब है, जो सब है, जो सब से अलग है और जिसमें सब का अत्यन्ताभाव है वही संत है |
– श्री उडि़या बाबाजी
द्रष्टा और दृश्य के सहयोग का नाम ही अभिमान है | ज्ञानी की दृष्टि में इसका कभी सहयोग नहीं हुआ, अत: उसके लिए दृश्य का अत्यन्ताभाव है |
– श्री उडि़या बाबाजी
ज्ञानी को पहले वैराग्य होता है, पीछे ज्ञान और भक्त को पहले भक्ति होती है, पीछे प्रेम और फिर वैराग्य |
– श्री उडि़या बाबाजी
राग-द्वेष, अल्प ज्ञान और अभिमान – ये जीव के बन्धन है |
– श्री उडि़या बाबाजी
शास्त्रवासना अथवा ज्ञानवासना भी पूर्ण होकर ‘मैं’ को सुखी नहीं बना सकती | वे निवृत्त होकर ही ‘मैं’ के सहज ज्ञान को निरावरण होने का अवसर देती है |
– महाराजश्री
प्रत्येक स्थिति में निर्द्वन्दता, निर्भयता यहाँ तक कि द्वन्द्व और भय से भी निर्भयता साक्षात्कार का स्वरूप ही है, फल नहीं | “अभयं ह वै जनक: प्रापतोSसि” |
– महाराजश्री
ज्ञान से अन्तःकरण रूप उपाधि के धर्म का अध्यास दूर नहीं हो सकता, क्योंकि यह उपाधि जैसे ज्ञान के पूर्व अपरोक्ष है, वैसे ही ज्ञान के अनन्तर भी अपरोक्ष ही रहेगी |
– महाराजश्री
“वेदान्त विज्ञान में हमारी श्रद्धा काम नहीं करती, वेदान्त ही काम करता है” – यह तो श्रद्धा का सबसे गाढा़, सबसे उत्कृष्ट रूप है |
– महाराजश्री
पूर्ण ज्ञान की स्थिति नहीं होती, ज्ञान ही पूर्ण होता है |
– महाराजश्री
तत्त्व दर्शन अर्थात् अनुभूति का अभाव नहीं |
– श्री माँ
यह जो तत्त्वज्ञान है यह भान का विरोधी नहीं होता, सब दिखते है तो दिखें अपनी आत्मा के रूप में |
– श्री माँ
जो एकरस रहता है कभी बदलता नहीं वह ‘सत्’ है |
– श्री माँ
जब हम कार्य-कारण भाव लगाते है तब हम जीवन में ईश्वर लाने के लिए लगाते हैं |
– श्री माँ
कार्य-कारण का भाव अद्वैत-तत्त्व की सिद्धि के लिए थोपा जाता है |
– श्री माँ
राग-द्वेष से वैराग्य होना चाहिए, वैराग्य से वैराग्य नहीं होना चाहिए |
– श्री माँ
व्यक्ति को ब्रह्म मानना और ब्रह्म में व्यक्तित्व को जानना इन दो बातों में बडा़ अन्तर है |
– श्री माँ
प्रतीक उपासना जब करते हैं तो प्रतीक ब्रह्म है यह बताने के लिए नहीं है बल्की, ब्रह्म ही प्रतीक है यह बताने के लिए है |
– श्री माँ
जड दृष्टि को छोडो़ और चेतन दृष्टि को जगाओ | जड दृष्टि अर्थात् वासना की दृष्टि, कामना की दृष्टि |
– श्री माँ
कर्म धर्म भी है और संघर्ष भी है |
– श्री माँ
कर्म अन्दर-बाहर पवित्र भी कर सकता है और अशान्त भी कर सकता है |
– श्री माँ
अशुद्ध अर्थात् अधर्म मूलक, मोह-ममत्व मूलक प्रवृत्ति |
– श्री माँ
श्री माँ
श्री श्री माँ पूर्णप्रज्ञा सच्चिदान्नद सिन्धु से प्रकट हुआ ज्ञानामृत विग्रह है, जो अद्वैत ब्रह्मचिन्तन से असंख्य ज्ञानक्षुधातुर जिज्ञासुओं को मुक्तहस्त से अमृतपान करा रही है |
श्री श्री माँ अनन्त विभुषित स्वामी श्री अखण्डानन्द सरस्वतीजी महाराज (वृन्दावन) की कृपापात्र शिष्या है |
श्री माँ औपनिषद् प्रतिपाद्य निर्विशेष ब्रह्म में प्रतिष्ठित है | एकान्त चिन्तन एवं निवृत्ति में आपकी निष्ठा है | आप उपनिषदादि अद्वैत प्रस्थानों की शांकर भाष्यानुसार व्याख्या करती हैं | जिज्ञासुओं के प्रश्न एवं शंका समाधान करने के लिए सदैव उत्साहित रहती हैं |
श्री माँ कहती हैं कि साधु की निवृत्ति-निष्ठा और निर्वासनता ही उसकी गरिमा को बढा़ती हैं | इस सम्बन्ध में श्रीउडि़या बाबाजी महाराज के वचन प्रमाण है कि, साधु को अंगुली निर्देश में नहीं रहना चाहिए |
प्रवचन के विषय में श्री माँ कहती हैं कि, औपनिषद् सिद्धान्त का प्रतिपादन करना ही श्री गुरुदेव की सच्ची सेवा है |
श्री माँ पूर्णप्रज्ञा
ब्रह्मविद्या
मनुष्य वासनानुसार शास्त्र का अर्थ निकाल लेता है | इसलिए दो चीज रखी गयी, शास्त्र भी चाहिए और गुरु भी चाहिए | जो एक बार साधक कल्पना होती है वह दूसरी बार बाधक कल्पना भी हो जाती है | शास्त्र का तात्पर्य समझना पड़ता है | शास्त्र चेतन के लिए होता है, चेतन शास्त्र के लिए नहीं |
ऑडीओ & विडीयो
” श्रवण मात्र से ज्ञान होता है “,
और आप जब श्रवण करते हैं तो वह क्या कर्म है?
आप जिस समय श्रवण कर रहे हैं, आपकी कर्मेन्द्रियाँ शान्त हैं, आप कान से श्रवण कर रहे हैं और आपकी बुद्धि समझ रही है तो, उसमें कर्म नहीं है | वह ज्ञान है |
मुख्य श्रवण जो है, वह ‘संन्यस्य श्रवणं कुर्यात्’ सब कुछ त्याग कर तब श्रवण होता है |
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निश्चय करो – वे भले हमसे दूर रहें, दर्शन दे या ना दे हम जीवन को साधननिष्ठ ही बनाकर छोडेंगे | साधन युक्त जीवन ही वास्तविक जीवन है | प्रत्येक कार्य साधन बुद्धि से करो कि यह प्रभु की सेवा-पूजा है और इसके द्वारा हम सन्निकट हो रहे हैं |