वेदान्त

” प्रतीक उपासना जब करते हैं तो प्रतीक ब्रह्म है यह बताने के लिए नहीं है बल्की ब्रह्म ही प्रतीक है यह बताने के लिए है ”

श्री.श्री.माँ
वेदान्त – ज्ञान है, अनुभव है
(भाग – १)

वेदान्त का बल अनुभव है|

आप अपने अनुभव को कितना सम्मान देते हैं?

वेदान्त सरल है, जब अनुभूति की ओर उन्मुख है|
अनुभव-प्रवण वेदान्त शब्दजाल नहीं है और बडी़ भारी विद्वत्ता का भी विषय नहीं है|
अपनी अनुभूति के बल पर आप सबको नकार सकते है और सत्य को प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् अपनी अज्ञात ब्रह्मता को आविर्भूत अर्थात् प्रकट कर सकते है|

वेदान्त को तार्किक और पठित बुद्धि का बल कम है, पर (वरन) विरक्त (निर्वासन+सूक्ष्म) और एकाग्र बुद्धि का अधिक है| राग-द्वेष राहित्य बुद्धि का अधिक है| राग-द्वेष राहित्य बुद्धि को एकाग्र और सूक्ष्म करता है| यहीं से निर्वासनता और पवित्रता का उद्गम है| ये सब आत्मानुसन्धान में आपके सहयोगी बनेंगे, बल देंगे| कहीं बन्धो नहीं, रुको नहीं, अटको नहीं! अनुभूति के लक्ष्य तक पहुँचो| सत्य प्राप्त ही है, मात्र दृष्टि हटानी है|
श्री. श्री. माँ

श्री.श्री.माँ
वेदान्त – ज्ञान है, अनुभव है
(भाग – २)

जैसी हमारी दृष्टि होती है, वैसा ही हमें दिखता है| सबमें परमात्मा का अनुसन्धान तब होता है, जब स्वयं का हृदय परमात्माकार हो जाता है| सच तो यह है कि परमात्मा के, सिवाय और कोई वस्तु नहीं है, देखने का दृष्टिकोण वेदान्त देता है| अभी माया-विशिष्ट, मायाच्छन्न (माया से ढँकी हुई) दृष्टि है| ज्ञान-दृष्टि उच्च दृष्टि है जो गुरुदेव के सत्संग और सेवासे ही मिलती है|
‘संतो दिशन्ति चक्षूंषि’
सानिध्य संश्रय उत्तम है|
सामान्यतया यह समझ होती है कि, ज्ञान पृथक् होता है और अनुभव पृथक् होता है| ज्ञान वह है जो हम शब्दों से, सुचनाओं से ग्रहण करते हैं और अनुभूति वह है जो बाद में कभी, कहीं, किन्हीं प्रयासों से प्रकट होगी| यह बात ऐसी नहीं है| गुरु-कृपा से वेदान्त हमें यह बताता है कि ज्ञान और अनुभूति (अनुभव) दोनों एक ही है| देखते, समझते चलिये|
श्री.श्री. माँ

श्री.श्री. माँ
वेदान्त – ज्ञान है, अनुभव है
(भाग – ३)

ज्ञान सहज भाव से अनादि और अनन्त है| अर्थात्
कालपरिच्छिन्न नहीं है| विषय ही सादि और सान्त होता है| ज्ञान सादि विषय को सादि और सान्त विषय को सान्त बताता है| ज्ञान स्वयं न सादि होता है न सान्त| विषय- सम्बद्ध ज्ञान नहीं है| अनुभूति दृष्टि से विचार हो, विचार ऐसा हो जो दूसरे को भी विचार करने पर मजबूर कर दे और अनुभव पर्यवसायी हो विचार|
ज्ञान ईश्वर का बनाया हुआ नहीं है और ज्ञान जीव का बनाया हुआ भी नहीं है| अपितु, ज्ञान से ही ईश्वर बनता है और ज्ञान से ही जीव बनता है| ज्ञान से ही जगत् बनता है| और जो ज्ञान से बनता है वह ज्ञान से भिन्न कैसे हो सकता है?ज्ञान ही तो उपादान हुआ न! वह तो ज्ञान का स्वरूप न जानने से ही ज्ञान से भिन्न मालूम पड़ता है| यह मालूम पड़ना भी ज्ञान ही है| स्वयं प्रकाश ज्ञान में भेदज्ञान, भिन्नता मिथ्या ज्ञान है| ज्ञान से बना सब ज्ञानात्मक है|
श्री.श्री. माँ

श्री.श्री. माँ
वेदान्त – ज्ञान है, अनुभव है
(भाग – ४)

अब कहे कि, ईश्वर ने ज्ञान बनाया, तो प्रश्न यह उठेगा कि, ईश्वर ने ज्ञान बनाया तो ज्ञान से बनाया कि, अज्ञान से बनाया? मूल कारण तक पहुँचो| मूल कारण ईश्वर है तो, उसके पास सामग्री ज्ञान की है या अज्ञान की? ज्ञानस्वरूप सर्वज्ञ अज्ञान का मसाला, matter कहाँ से लायेगा? अज्ञान से ज्ञान कैसे बनेगा? यदि ईश्वर ने ज्ञान से ज्ञान बनाया तो ज्ञान बनाने के पहले भी ज्ञान था| बनाया क्या? इसीसे ज्ञान अर्थात् वेद को ‘अपौरुषेय’ बोलते हैं| अपौरुषेय माने किसी पुरुष की रचना नहीं है ये! जीव, ईश्वर, किसी व्यक्ति-विशेष ने, किसी काल-विशेष में, किसी स्थान-विशेष में, किसी रूप-विशेष में ज्ञान की रचना नहीं की है|
तात्पर्य है कि, ज्ञान निरपेक्ष स्वयंप्रकाश है, असंपृक्त है, असंग है| यह ज्ञान की बात हो रही है या शुद्ध अनुभव की?!! ज्ञान काल के स्पर्श से रहित है| न आदि है, न मध्य है, न अंत है – ज्ञान है! देश के स्पर्श से रहित – न उसमें पूर्व है, न पश्चिम है, न उत्तर है, न दक्षिण है – ज्ञान है! एशिया, यूरोप, भूगोल – खगोल की कथा भी नहीं|

श्री.श्री.माँ
वेदान्त – ज्ञान है, अनुभव है
(भाग – ५)

ज्ञान का आचार (आचरण) भी नहीं है| सब आचार ज्ञान से स्फुरित होते हैं – स्फुरणात्मक हैं| स्फुरण से पृथक् जो आचार मालूम पड़ते हैं, वे अज्ञान से मालूम पड़ते हैं और जहाँ नहीं है वहाँ मालूम पड़ते हैं| अपने अभाव के अधिकरण में भासमान होने के कारण आचार को मिथ्या बोलते हैं| ज्ञान पर आचार-विचार, शौचाचार का आरोप न करें| ज्ञान को आचरण – विमुक्त शुद्ध ही रहने दे|
बाह्य, आन्तर आचार की भासमानता से विरोध नहीं है, उनकी अखंड सत्तात्मकता से विरोध है| भासता हैं भासें| इसको हम लोग बोलते हैं ‘वेद’ | वेद एकात्मकता को दर्शाता है| आकार अलग-अलग होने पर भी ज्ञान एक होता है| घडा़, सकोरा अलग-अलग, पर मृतिका एक|

‘वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्’

मृत्तिका यहाँ ज्ञान है| प्रकाश और प्रकाशक एक है| यह घडा़ है, यह सकोरा है, मिट्टी एक है, सत्ता एक है| आकार के भेद से न सत् में भेद होता है, न ज्ञान में भेद होता है| ज्ञान को आकार में बाँधना ज्ञान के स्वरूप को न जानना है|

श्री.श्री.माँ
वेदान्त – ज्ञान है, अनुभव है
( भाग – ६)

जाग्रत् – स्वप्न – सुषुप्ति अलग-अलग और ज्ञान एक ! सुख – दु:ख अलग-अलग और ज्ञान एक ! तात्पर्य है कि, एक ज्ञान (चेतन) पर दृष्टि रखनी है, बाह्य आडम्बर, दृश्य, अनित्य, परिवर्तनशील पर नहीं| वह मायाच्छन्न दृष्टि है|
दार्शनिक सत्य प्रयोजन-निरपेक्ष होता है| सत्य के, परमार्थ के विचार में ध्यान रखें कि, वस्तु का स्वरूप प्रयोजन की अपेक्षा नहीं रखता है| सत्य को पर्योजनानुसारी नहीं बनाया जा सकता है| सत्य का निर्वचन स्वाभाविक रूप से ही किया जाता है, चाहे उससे किसीके सिद्धान्त की हानि होती हो या लाभ हो| शून्यवाद का खण्डन करने के लिये भाष्यकार भगवान् ‘साक्षी’ को नहीं लाते हैं, परन्तु उपनिषद् प्रतिपादित साक्षी, चैतन्य है| साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च| और आपके अनुभव में भी है|

श्री.श्री.माँ
वेदान्त – ज्ञान है, अनुभव है
(भाग – ७)

कोई कहते है कि, यदि ब्रह्म को ‘निर्गुण’ मानोगे तो उपासना की सिद्धि कैसे होगी? यदि ब्रह्म को ‘सर्व’ मानोगे तो समाधि की सिद्धि कैसे होगी? और, यदि ब्रह्म में जगत् को मिथ्या मानोगे तो कर्म और कर्मफल की सिद्धि कैसे होगी? भले मानुष ब्रह्म जैसा है उसको वैसा दिखाने के लिए विचार किया जाता है, कर्म, उपासना या समाधि की सिद्धि के लिए ब्रह्म का विचार नहीं किया जाता है| ब्रह्म ज्ञानस्वरूप है अत: ज्ञान का विचार होता है|
चार्वाक, जैन, न्याय, वैशेषिक ने बाह्य पदार्थ को महत्त्व देकर विचार किया| विज्ञानवादी बौद्धों ने बाह्य पदार्थ की प्रधानता से नहीं, आंतर पदार्थ को महत्त्व देकर विचार किया – विज्ञान ही सत्य है| भूल यह हुई कि इस विज्ञान को काल के पेट में रख दिया| अन्त:करण श्रुति के अभाव में बना रहा| क्षण वैज्ञानिक नहीं विज्ञान क्षणिक हो गया | विज्ञान से क्षण की सिद्धि होती है | यहाँ क्षण को ऊपर कर दिया |
शून्यवादियों ने शून्य कहा और विज्ञान और बाह्य-पदार्थ को शून्य का ढ़क्कन (सांवृतिक) कह दिया | शैवों ( कश्मीरी शैवों) ने कहा बाह्य, आंतर, शून्य सब आत्मा का उल्लास है | अपना शिव ही सब रूपों में है | सब आत्म तत्त्व की थिरकन है, स्पंदन है, उल्लास है |
वेदान्तियों ने कहा, जो नृत्य, उल्लास, स्पंदन या मौज कहते हो यह एक देह, एक अन्त:करण को स्वीकृति देकर कहते हो | यह तो लौकिक दृष्टि है, वेदान्त प्रदत्त निरुपाधिक दृष्टि नहीं है यह | जब अन्त:करण की उपाधि नहीं तो स्पंदमानता भी कैसे रहेगी |
वेदान्त ज्ञान सिद्ध अनुभव है, साध्य नहीं इसलिए यह सिद्धान्त है | अनुभूति अकाट्य है, सिद्ध ज्ञान है | वेदान्त-ज्ञान या ब्रह्म-विद्या अनुभव को स्पष्टता देती है | ज्ञान तो है ही-बनाना नहीं है | अत: सरल है |
श्री गुरुदेव के चरणों में
माँ पूर्णप्रज्ञा

प्रमेय का ध्यान करना वेदान्तों का सिद्धान्त नहीं है | प्रमेय पदार्थ की निवृत्ति से उपलक्षित प्रमाता का परमार्थ-स्वरूप ब्रह्म है | यहाँ प्रमाण की प्रवृत्ति प्रमाता की सिद्धि में नहीं है, अपितु प्रमेय की निवृत्ति ही उसका प्रयोजन है | प्रमेय की निवृत्ति से प्रमाण स्वयं निवृत्त हो जाता हैं | वेदान्त में प्रमेय और प्रमाण की निवृत्ति से उपलक्षित ब्रह्म और जीव की एकता ही प्रमेय-वस्तु है, जो स्वत: सिद्ध होने से अप्रमेय होकर रहती है |
प्रमाण और प्रमेय का भेद ही चेतन को परिच्छिन्न सा दिखाता है अर्थात् प्रमाता बना देता है | यह प्रमाण और प्रमेय का भेद स्वयं आविद्यक है | अर्थात् असत् है, तुच्छ है, मायिक है, इन्द्रजालवत् है | प्रमाता चूँकि प्रमेय और प्रमाण की अपेक्षा से ही है, अत: प्रमेय की निवृत्ति से प्रमाण तथा इन दोनों की निवृत्ति से प्रमातृत्व (प्रमातापना) भी निवृत्त हो जाता है | और परमात्मा ही सदा अपरोक्ष स्वयं प्रकाश विराजता है – निषेधावधि साक्षीरूपेण नि:शेष विभात है |
श्रीउडि़या बाबाजी महाराज – “ज्ञेय का ध्यान न करना ही ज्ञाता में स्थित होना है |”

जितना विशेष ज्ञान होगा, उसमें संस्कार प्रधान और चेतन=ज्ञान गौण होगा और जितना सामान्य ज्ञान होगा उसमें चेतन की प्रधानता होगी और संस्कार गौण होगा | संस्कार की गौणता ज्ञान के उत्कर्ष को प्रकट करती हैं |

श्रीअष्टावक्र महामुनि कहते हैं-
‘आचक्ष्व श्रुणु वा तात, नानाशास्त्राण्यनेकश: |
तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणाहते’ ||
‘वत्स! चाहे तुम बार-बार अनेक शास्त्रों का अध्ययन करो या श्रवण करो | फिर भी जब तक तुम सब को भूल नहीं जाओगे (नि:संकल्प दशा प्राप्त नहीं करोगे)तब तक तुम्हारी स्वरूप-स्थिति नहीं हो सकती’ |

विशिष्ट ज्ञान स्मृति का हेतु है और स्मृति-विशिष्ट ज्ञान का हेतु है | सामान्य-ज्ञान न तो स्मृति जन्य है और न स्मृति जनक है, अपितु सम्पूर्ण स्मृतियों, संस्कारों या विशिष्टज्ञान को बाधित (करनेवाला)रखते हुए सदा विभात है | स्मृतियाँ बाधित हो जाती हैं और स्वयं अपनी महिमा में चमाचम चमकता रहता है |
संस्कार-रहित ज्ञान अपौरुषेय ज्ञान है | संस्कार-सहित ज्ञान स्मृतिशास्त्र है | इसमें भी ज्ञान की प्रधानता है, संस्कार गौण है | ये संस्कार ही अपौरुषेय ज्ञान का आवरक बनके स्मृति के रूप में भासता है | इस स्मृति का सर्वथा अपोहन कर डालना ही जीव का पुरुषार्थ है | अथवा कहो तो जो स्मृति का उपमर्दन करके स्वयं अद्वितीय सद्वस्तु के रूप में सदा प्रकाशमान रहता है वही वेदों की अपौरुषेयता का(सार)अभिप्रेत अर्थ है |

ईश्वर की परिभाषा – अन्त:करण परिच्छेद सामान्य अभाव अवच्छिन्न चैतन्य का नाम ईश्वर है |

अन्त:करण सामान्य का अर्थ होता है चींटी के, कबूतर के, पक्षी के, पुरुष के, स्त्री के, सबके अन्त: करण ले लो, उसे बोलेंगे अन्त:करण सामान्य |

अब अनत:करण सामान्य अर्थात् सम्पूर्ण अन्त:करण को लिया और उसका परिच्छेद अर्थात् उसकी एक सीमा उसका परिच्छेद बना, उसके अभावावच्छिन्न जो चैतन्य है वह ईश्वर है | अन्त:कारण सामान्य के परिच्छेद के अभाव से अब सारे अन्त:करण ले लीजिए और फिर उनका अभाव कर दो |

अभाव के अन्दर जो चैतन्य है, अभाव की उपाधि धारण किये हुए जो चैतन्य है, अभाव से विशिष्ट जो चैतन्य है उस चैतन्य को ईश्वर कहते हैं |