श्री उडि़या बाबाजी वाक्य

ज्ञान का फल है कि सदा एक ही सत्ता दृष्टि में रहे, स्वरूपसत्ता के सिवा किसी अन्य सत्ता का स्वप्न में भी भान न हो |

    • दृष्टि से सृष्टि बनाना ही वेदान्त है और सृष्टि से दृष्टि को हटाना ही योग या उपासना है |
    • आत्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है – इसीका नाम आत्मनिष्ठा है |
    • गुरु भक्ति और गुरु प्रदत्त साधन से आसक्ति न होने से शिष्य की उन्नति होनी असंभव है |
    • साधना का प्रारम्भ और अन्त श्रद्धा ही है | पूर्ण श्रद्धा भगवत् प्राप्ति से कुछ ही नीचे की अवस्था है | समस्त साधन इसी के लिए है |
    • संकल्प त्याग का अभ्यास करने से निश्चय ही भगवान् मिल जाते हैं – इसका मैं ठेका लेता हूँ |
    • ज्ञान मार्ग में भक्ति साधन रूप है और तत्त्वज्ञान उसका फल है | किन्तु, भक्ति मार्ग में भक्ति साधन नहीं फलरूप ही है, वही सिद्ध भी है |
    • यदि तुम सत्यवादी और ममताशून्य हो तो तुम्हारा कोई क्या बिगाड़ सकता है |
    • भोग बुद्धि को नष्ट कर देना, उसे उखाड़कर फेंक देना ही उत्तम ब्रह्मचर्य है |
    • संसार में तीन ही बातें हैं –
      देखना, सुनना, बोलना |
      इन तीनों को जो संयमित रखता है, वह सुखी है |
    • याद रखो जहाँ किसी भी प्रकार का अभिमान आता है वहीं अवगुण आ जाते हैं |
    • किसी की वासना का विरोध मत करो और अपने अन्दर कोई वासना मत आने दो, यही सन्तों का मार्ग है |
    • जब दिन-रात भजन की रगड़ हो तभी कुछ हो सकता है | दिन-रात भजन करना तो मानों दिन-रात विषयों से युद्ध करना |
    • ध्यान से ज्ञान होता है; ध्यान के बिना ज्ञान रह ही नहीं सकता |
    • चिन्तन-स्मरण से सब कुछ हो जायेगा | चिन्तन का अभ्यास जितना बढे़गा, उतनी ही संसार से विरक्ति और भगवत्प्रेम की प्राप्ति होगी |
    • वह ज्ञानी नहीं जो भक्त को तुच्छ समझता है |
    • तीन स्थितियाँ हैं –
      १)तच्चिन्तन
      २)तत्स्वरूपता और
      ३) तल्लीनता
      इसमें तत्चिन्तन का नाम भक्ति है | तत्स्वरूपता ज्ञान है और तल्लीनता प्रेम है |
    • ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बंध कभी नहीं होता-ऐसा चिन्तन हर समय रखना चाहिये।
    • ब्रह्म सम और निर्दोष है तथा संसार विषम है, और उसमें आसक्ति होना दोष है।
    • शास्त्र और गुरु की आज्ञा पालन करने से तथा नियम निष्ठा से, साधन में कोई विध्न नहीं हो सकता। इसमें भी शास्त्राज्ञा
      की अपेक्षा, गुरु की आज्ञा श्रेष्ठ है।
    • दूसरों की समालोचना न करना वैराग्य का लक्षण है।
    • परमात्मा में चित्त आसक्त हुए बिना कोई साधक सिद्धावस्था को प्राप्त नहीं होगा।
    • निवृत्ति परायण होना-यह ज्ञान का फल है |
    • भूत-भविष्यत् ही संसार है, वर्तमान ही द्रष्टा हैं। वर्तमान में स्थिति का नाम ही ब्रह्माकार वृत्ति है।
    • ईश्वर में प्रेम होने से विषय प्रेम दूर हो जाता है |
    • आत्मा से दृश्यवर्ग का पृथक्करण ही दृश्य का निषेध है |
    • कितना भी चमत्कार हो, अपने लक्ष्य से न हटें |
    • यथार्थ बोध में ही विचार की समाप्ति है |
    • निरपेक्ष रहने में जो सुख है वह समाधि में नहीं है |
    • भावमय ज्ञान व्यवहार है और ज्ञानमय भाव परमार्थ है |
    • संसार से वैराग्य और साधना से प्रेम करें |
    • तीन बातें याद रखनी चाहिए –
      १)दीनता
      २)आत्मचिन्तन
      ३)सद्गुरु सेवा |
    • जिसमें भगवद्विषयक जिज्ञासा का उदय हो वही अन्तःकरण शुद्ध है |
    • अभिमान ही सबको सीमित करता है | जो जिसका अभिमान कर लेता है वह वही हो जाता है |
    • ब्रह्माकार वृत्ति का अभ्यास पक्का रहे तभी मनुष्य महात्मा हो सकता है |
    • भजन गुप्त रूप से करना चाहिए | अपने को भजनानन्दी नहीं प्रकट करना चाहिए |
    • परमात्मा में चित्त आसक्त हुए बिना कोई साधक सिद्धावस्था को प्राप्त नहीं होगा |
    • तीन बातों का ध्यान रखो –
      १)कम बोलना
      २)कम खाना
      ३)कम सोना |
    • आलस्य सबसे अधिक विघ्नकारक है | आलस्य से शरीर और मन दोनों ही दुर्बल होते हैं |
    • समस्त स्थितियों में चित्त की समरसता ही सद्भाव है |
    • भक्त और ज्ञानी इस सृष्टि में नहीं रहते | वे इस सृष्टि को आग लगा देते हैं |
    • सरलता भक्ति मार्ग का सोपान है तथा संदेह और कपट अवनति के चिन्ह है |
    • अपने चरम लक्ष्य को एक बार देखना ज्ञान है और उसे बार-बार देखना ध्यान कहलाता है |
    • साधु रोटी के सिवा कुछ न मांगे, चाहे मर जाये |
    • वस्तु को स्वरूप से त्याग देना ही त्याग है |
    • जिसका देहाभिमान गल गया है, वस्तुतः उसी ने कुछ पाया है |
    • परदोष दर्शन भगवत्प्राप्ति में महान विघ्न है |
    • सब प्रकार के दुःखों को शान्तिपूर्वक सहना चाहिए |
    • शरीर के लिए आहार है, आहार के लिए शरीर नहीं |
    • भक्त भगवान् का ऐश्वर्य देखता है और ज्ञानी ऐश्वर्य को जानता है |
    • आसक्ति छोड़कर किये हुए सब कर्म भजन के ही अन्तर्गत है |
    • चित्त में भगवान् का चिन्तन हो, इसका नाम मौन है, वाणी रोकने का नाम मौन नहीं है |
    • जिस आत्मा के सम्मुख यह मनोराज्य हो रहा है उससे पहले कुछ भी नहीं था |
    • साधन से एक मिनट खाली रहना पाप है |
    • संसार-चिन्तन से तुम जितने उपराम होगे, संसार तुमसे उतना ही अधिक प्रेम करेगा |
    • महात्मा के दर्शनों से पाप टल जाते है, यह तो साधारण फल है।
    • मुख्य फल तो यही है कि महात्मा के दर्शन करके अन्त में दर्शन करनेवाला महात्मा ही हो जाता है।
    • मननशील को मनुष्य कहते हैं। उसके दो लक्ष्य होने चाहिए-
      1)एक ईश्वर प्रेम और दूसरा
      2)शास्त्रोक्त व्यवहार।
    • जिसे देखी-सुनी किसी भी वस्तु से मोह न रहे,
      सम्पूर्ण संसार और भगवान् से भी वैराग्य हो जाय,
      जिसके मल और विक्षेप निवृत्त हो गये हों
      तथा जो अत्यन्त वैराग्यवान् हो,
      वही ज्ञान का अधिकारी है।
    • अभ्यास को कभी छोेड़े नहीं। ऐसा अभ्यास करें कि और सब छूट जाय तथा आत्मा में आसक्ति हो जाय।
      अथवा ऐसा अनुभव होने लगे कि शरीर की सब चेष्टायें मानों परप्रेरित ही हो रहीं हो।
    • अरे! भगवान् से कौन मिलना चाहता है?
      सब यही चाहते हैं कि स्त्री, पुत्र या धन मिल जाये।
      हर समय श्वास-श्वास पर भगवान् की याद करो, फिर देखो, भगवान् कैसे नहीं मिलते।
    • केवल भक्त और भगवान् रह जायँ  तथा सृष्टि का अत्यन्ताभाव हो जाये – यही भक्ति का स्वरूप है।
    • इन पाँच बातों से प्रेम नष्ट हो जाता है –
      1) बहिर्मुख पुरुषों की संगति करने से।
      2) बहिर्मुख पुरुषों की बनायी हुई पुस्तकों को पढ़ने से।
      3)बहुत शास्त्रों का अभ्यास करने से।
      4)संसारी पुरुषों के साथ राग करने से।
      5)बहुत शिष्य करने से।
    • इन पाँच बातोंका त्याग सभी सधकों को करना चाहिए –
      1) व्यर्थ चिन्तन
      2) व्यर्थ भाषण
      3) व्यर्थ दर्शन
      4) व्यर्थ भ्रमण
      5) व्यर्थ श्रवण
    • जो परमात्मा में चित्त लगाता है वही त्यागी है। जो कार्य छोड़कर खाली सोता रहता है उसका नाम त्यागी नहीं है, वह तो आलसी है।
    • भूत-भविष्य ही संसार है, वर्तमान ही द्रष्टा है।
      संकल्पों का साक्षी रहने से संकल्प देखते-देखते उड़ जायेंगे।
      केवल वर्तमान ही रह जायेगा।
      वर्तमान में स्थिति का नाम ही ब्रह्माकार वृत्ति है।
    • अपने को भूलकर भगवान् में तल्लीन रहना ही भक्त का मुख्य कर्त्तव्य है |
      तथा निःसंकल्प हो जाना ही ज्ञानी का मुख्य कर्त्तव्य है। कहा भी है
      ‘फिक्र दिल के साथ चाहे सौ लगी रहें।
      आशिक की शर्त है कि हरदम लौ लगी रहे।।’
    • भगवत्प्राप्ति के चार उपाय
      1) भगवद्दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा
      2) निरन्तर नामजप
      3) विषयों में अरुचि और
      4) सहनशीलता
    • केवल भगवान् को ही चाहना निष्काम भक्ति है |और भगवान् से कोई अन्य वस्तु चाहना सकाम भक्ति है। अर्थात् भोगों की इच्छा सकामता है और केवल भगवान् को ही चाहना निष्कामता है।
    • चिन्ता और क्रोध – ये भक्ति के प्रधान विघ्न हैं।
    • यह निश्चय कर लेना कि मेरा इष्ट यही है – बुद्धि का अर्पण है | और हर समय इष्ट का ही चिन्तन करना मन का अर्पण है।
    • विषयों में सत्यत्व, रमणीयत्व और सुखबुद्धि होने से ही उनका चिन्तन होता है।
      यदि धीरे-धीरे आत्माकार वृत्ति बढ़ायी जायेगी तो विषयों का सत्यत्व निवृत्त हो जायेगा और फिर आत्मचिन्तन भी होने लगेगा।
    • जप और ध्यान एक साथ हो सकते हैं,  जैसे हम तुमको देख भी रहे हैं और बातें भी कर रहे हैं।
    • ज्ञान तो अज्ञान का विरोधी है, विक्षेप का विरोधी नहीं।  ज्ञान होने पर चित्त का बोध तो हो जाता है, परन्तु प्रतीति रहती है।
      प्रतीति की निवृत्ति ज्ञानाभ्यास से होती है।  अतः बोध होने पर भी चित्त की शान्ति के लिये ज्ञानाभ्यास करते रहें।
    • मन पर अधिकार प्राप्त करने के लिए पाँच बातें बहुत उपयोगी हैं –
      1)मनोराज्य का त्याग
      2)मौन अथवा मित भाषण
      3)स्त्री – संग का त्याग
      4)एकान्त सेवन
      5)धार्मिक पुस्तकों का पाठ
    • परमात्मा को असम्मूढ़ (विवेकी या बोधवान्) ही प्राप्त कर सकते हैं, स्त्री-पुत्रादि में आसक्ति वाले नहीं।
    • मैं न कर्ता हूँ न कारयिता हूँ और न भोक्ता हूँ;
      सब कुछ भगवान् ही कर रहे हैं;  वे ही करा रहे हैं और वे ही भोग रहे हैं।
      मैं तो केवल उनके हाथ का यन्त्र हूँ, उनकी लीला का साक्षी हूँ।
      ऐसी बुद्धि से कर्मबन्धन छूटेगा |
    • केवल राग, भय और क्रोध बीत जाने पर पूर्णता प्राप्त नहीं होती। यदि ऐसा होता तो भगवान् ‘मन्मया मामुपाश्रिताः’ क्यों कहते। अतः उसके साथ भगवन्निष्ठा और भगवदाश्रय अवश्य होने चाहिए।