श्री माँ – वाक्य

ब्रह्म तो वृत्ति का विषय नहीं बनता है, वृत्ति ही अपनी पृथक्ता खो देती है |

  • ज्ञान के दो अर्थ हैं |
    1)अविद्या को निवृत्त करनेवाली चरमावृत्ति औरl
    2)ज्ञान ब्रह्म – सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म, प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यता के अनुसार शब्द अर्थात् शब्दार्थ ग्रहण होता है | अन्ततोगत्वा शब्द ब्रह्म तक प्रकाशक है और प्रत्येक शब्द का अधिष्ठान ब्रह्म है |
    ” शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वात् “ |
    इसी प्रकार अग्नि भी दो हैं |
    1)ज्ञानाग्नि और
    2)मायाग्नि – भौतिक अग्नि मायाकृत है |
    सत्य की अग्नि परीक्षा नहीं होती है | सत्य बिना अग्नि के ही निखरा हुआ है क्योंकि अग्नि की भी प्रतिष्ठा सत्य ही है | अग्नि की ही अग्नि-परीक्षा है कि वह सत्य को कितना प्रकट, कितना अभिव्यक्त कर सकता है |
  • जब आप शरीर के स्तर पर हैं तब प्रभु – परमात्मा धर्म के रूप में आपके जीवन में अवतरित होते हैं | जब आप मन (=भाव)के स्तर पर रहते हैं, तब उपासना या भक्ति के रूप में परमात्मा का अवतरण आपके जीवन में होता है | जब आप स्थिति या अवस्था के प्रेमी हैं, तब परमात्मा योग साधना या समाधि के रूप में आपके जीवन में अवतरित होता है | जब आप बुद्धि के स्तर पर रहते हैं, तब वेदान्त – विचार के रूप में ईश्वर का अवतरण होता है |
  • अद्वितीयता सहज है और सद्वितीयता केवल प्रतीति होती है, मालूम पड़ती है, यह प्रतीतिमात्र है | जब वैराग्य सहज होता है तब यह बात समझ में आने लगती है | यह भ्रान्ति के कारण है |वैराग्य बनाना नहीं पड़ता| वैराग्य सहज है क्योंकि वह अज्ञात ब्रह्माकार वृत्ति है अर्थात्, वहाँ ब्रह्माकारता है ही पर आप जानते नहीं है, राग-द्वेष राहित्य है ही, परिच्छिन्नता की समाप्ति है ही |
  • तत्त्व हमेशा क्षमाशील होता है, क्षमा करता है | ब्रह्म नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त और एक अद्वितीय है जहाँ दूसरे के लिए अवकाश नहीं है | उस ब्रह्म में पूरी सष्टि का अध्यारोप किया जाता है, सम्पूर्ण दृश्य प्रपंच का अध्यारोप किया जाता है | सम्पूर्ण सृष्टि का अध्यारोप हो कि न हो लेकिन, वह तत्त्व ज्यों-का-त्यों है | वह किसीसे भिड़ने नहीं जाता | तत्त्व जो होता है वह हमेशा सहिष्णु होता है | सहन करना उसका स्वभाव है | क्षमा, सहिष्णुता आत्म-धर्म है | तत्त्व का जो स्वभाव है, वही महात्मा का स्वभाव है, वही साधक जिज्ञासु को अपनाना चाहिए |
  • महाराज! ऐसा एक तत्त्व है जिसे आप अस्ति भी नहीं कह सकते – नास्ति भी नहीं कह सकते, व्यक्त भी नहीं कह सकते – अव्यक्त भी नहीं कह सकते, सत् भी नहीं कह सकते – असत् भी नहीं कह सकते, कार्य भी नहीं कह सकते – कारण भी नहीं कह सकते, प्रत्यक्ष भी नहीं कह सकते – परोक्ष भी नहीं कह सकते, ईश्वर भी नहीं कह सकते – जीव भी नहीं कह सकते, वृत्ति और वृत्याभाव भी नहीं है – तो जितनी बातें बनती हैं, उसका अधिष्ठान है उसका प्रकाशक है |
  • ये ब्रह्माकार वृत्ति की बात ऐसी है कि, यह स्वत: होती नहीं है | ब्रह्माकार वृत्ति अर्थात् ब्रह्म की वृत्ति है यह, अत: स्वत: होती नहीं है लेकिन, हमें क्या करना है?
    पुरुष प्रयत्न यह होता है कि हम सभी वृत्तियों का निषेध करें | जो-जो अनात्माकार वत्तियाँ आती हैं, उनका हम निषेध करते जायें, और एक वह शून्य-वृत्ति, अभावाकार वृत्ति; वहाँ जब हम पहुँचे तो अभाव से उपलक्षित जो वृत्ति है वह वृत्ति स्वत:आती है | वह ब्रह्म की वृत्ति है, जीव उसे नहीं बना सकता | यद्यपि वह जीव की वृत्ति नहीं है, लेकिन जीव की वृत्ति जितनी है उनका निषेध जीव स्वयं कर सकता है | तो अनात्माकार का जब निषेध करेगा तो आत्माकार वृत्ति प्रकट होगी ही होगी और यदि ब्रह्म का विचार उसने जीवन में किया है, श्रवण किया है, तो उसके जीवन में यह ब्रह्म-तत्त्व प्रकट होगा ही होगा क्योंकि तब वह जीव रहेगा नहीं |
  • ज्ञेयः स नित्य संन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।‘ (गी.5.3)
    जो न द्वेष करता है न राग करता है, वही नित्य संन्यासी है। वह चाहे किसी भी आश्रममें हो। समता आप चाहते हैं लेकिन, सम्बन्ध भी
    चाहते हैं, वासना-कामना की पूर्ति भी चाहते हैं, सब चाहते हैं। कहा कि इनको कैसे छोड़ दें? जिसका अन्तःकरण शुद्ध है, उसमें एक वीरता आती हैं, त्यागकी सामर्थ्य ही वीरता है। उसको सूर कहते हैं संस्कृत में। शूर नहीं सूर कहते हैं।
  • सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।‘(गी.18.66)
    एकमद्वितीयं माम्’ मुझमें अर्थात् मुझ एक अद्वितीय परमात्माकी शरणमें आओ। तो, शरणागतिसे वहाँ तात्पर्य बोध ही है। बिना ब्रह्मात्मैक्य बोधके परमात्मासे ऐक्य बोध होगा नहीं और होगा नहीं तो आपकी शरणागति सम्पूर्ण होगी नहीं। समर्पण एक बोध हैं। जहाँ भेद दृष्टियाँ समस्त निरस्त हो जाती हैं, वहाँ बाध्य-बाधक भाव भी नहीं बनता।
  • समताकी भूमिकायें, महाराजजीके श्रीमुखसे सुनी बात सुनाते हैं।
    (1) प्रथम भूमिकामें राग-द्वेषकी शिथिलता हो जानेसे असंगता आती है।
    वैराग्य क्या है? जब हम असंगतामें रहने लगते हैं तो, उस असंग आत्माका अन्तःकरणमें जब प्रतिबिम्बन होता है, उसे वैराग्य कहते हैं।
    जब वैराग्य आता है तो एक असंगता जीवनमें आती हैं। वहाँ भी समता की एक भूमिका बनेगी, क्योंकि असंगता होनेके कारण हम
    किसीसे न राग करते हैं, न द्वेष करते हैं। शिथिल राग-द्वेषके कारण वहाँ पर ‘अनासक्ति मूलक साम्य’ हैं।
    (2) समताकी दूसरी भूमिकामें चेतन पर दृष्टि होती है। सबमें एक ही चेतन अनुस्यूत है – ऐसी जब समझ आगयी तब चेतनत्व कृत जो समता है वह आ जाती है। इसे कहते हैं ‘चेतनत्व कृत साम्य।
    (3) तीसरी भूमिकामें है ईश्वर साधर्म्यकृत साम्य। ईश्वर के जैसी दृष्टि हमें प्राप्त हो गयी अर्थात् हमें ईश्वर के साधर्म्य की प्राप्ति हो जाती है-
    मम साधर्म्यमागताः’ श्रीभगवान् कहते हैं कि वह मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। ईश्वर साधर्म्य की प्राप्ति कैसे हुई तो पहले तो
    अपहतपाप्मा’ हो गये अर्थात् पापोंकी निवृत्ति हो गयी। इस गुणातीत ज्ञानके द्वारा ईश्वर साधर्म्य से, अपहृत पाप्मा हो जानेसे, जिस समताकी
    प्राप्ति होती है वह ‘ईश्वर साधर्म्य मूलक साम्य’ नामक समता की तीसरी भूमिका है।
    (4) हम लोग जो ब्रह्म तत्त्व का विचार कर रहे हैं, उस ब्रह्म तत्त्व का जब बोध हो जाता है, तो वहाँ पर अद्वैत मूलक समता आती है।
    अर्थात् अन्य और कुछ नहीं है। यह है ‘अद्वैतमूलक साम्य’ नामक समताकी चौथी भूमिका।
  • उपनिषद् परमात्माके समीप बैठाती है अर्थात् जिसके समीप बैठने पर निश्चित रूपसे अज्ञानकी निवृत्ति हो जाती है। तो अविद्याकी निवृत्ति क्या उस पोथीमें होगी? नहीं। यह उपनिषद् विद्या, ब्रह्म-विद्या आपके हृदयमें बैठती हैं. उपनिषद् प्रमाणं हम लोग बोलते हैं | ‘उपनिषद् प्रमाणं’ अर्थात् जैसे रूपको देखनेमें नेत्र प्रमाण है, शब्दको सुनने में कान प्रमाण है वैसे ब्रह्मात्मैक्य बोधके लिए उपनिषद् प्रमाण है।
  • अवेद्यत्वे सति अपरोक्षत्वम्’’ अवेद्य होने पर भी अपरोक्ष है। अनुभूति स्वरूपको ही कहते हैं स्वयं प्रकाश। सूर्यको देखनेके लिए तो आँखकी
    आवश्यकता है, मनकी भी, बुद्धिकी भी आवश्यकता है। बीचमें कुछ बादल आदि न हो यह भी आवश्यक है। इसलिए सूर्य तो दृष्टान्त था।
    एक कक्षामें जिस वस्तुको हम समझनेकी कोशिश करते हैं उसे ‘दार्ष्टान्त’ कहा जाता है। और उसे समझानेके लिए जो उदाहरण दिया जाता है उसे ‘दृष्टान्त’ कहा जाता है। सूर्य दृष्टान्त है इसलिए वह पूरी तरहसे दार्ष्टान्त-आत्म स्वरूपमें घट नहीं सकता। क्योंकि दृष्टान्त दृश्य में होता है। और, आत्मा वह दृश्य नहीं है। सभी दृश्यों को
    जो प्रकाशित कर रहा है, वह स्वयं प्रकाश हैं |
  • एक कर्म प्रधान साधन होता हैं, जिसको ‘कर्म योग’ कहा गया ।
    एक भावना प्रधान साधन होता है जिसे ‘भक्तियोग’ कहा गया और
    एक विचार प्रधान साधन होता है, उसे ‘ज्ञानयोग’ कहा गया।
    ये सब ‘योग’ हैं। ‘योग’ हैं अर्थात् निर्माणकी कक्षामें हैं। और इनमें से किसीके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती। आप लोग अपने हृदय पर हाथ रख लीजिये। क्योंकि, आपको लगेगा कि यहाँ क्या बात कही जा
    रही हैं? इतने दिन तक जो सुनाया, आज उसको काट दे रहें हैं, सफाचट कर रहे हैं। बात सच्ची है। आप परमात्मा कों निर्माण के विभाग में नहीं ला सकते।
  • आप अपने आपको जब तक नहीं जानते तब तक जो भी करेंगे वह व्यर्थ हो जायेगा | जिसने आपके आत्म स्वरूप को ढ़क लिया, उस अविद्या का, उस अज्ञान का पहले उच्छेद होना चाहिए और उसके लिए श्रवण के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है | ब्रह्म विद्या के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है | ब्रह्म विद्या स्वयं प्रकाश के साक्षात् अपरोक्ष अंश में रहती है और अवेद्य अंश में अविद्या रहती है |
    आप ब्रह्म विद्या स्वरूप श्रीगुरुदेव के अनुग्रह से साक्षात् अपरोक्ष अंश को स्वीकृति दीजिए और दिन-प्रतिदिन अपनी आत्मा का साक्षात् अपरोक्ष जो होता है उस ओर गमन कीजिए| आप उसकी शरण में जाईये, उसमें समर्पण कीजिए | अविद्या को जड मूल से निरस्त कर दीजिए | आप समता में प्रतिष्ठित ही हैं | ऐसा नहीं है कि समता नहीं है | आपकी बुद्धि में सदैव समता है |
  • व्यवहार प्रधान, गुरु का जीवन है तो उससे शिष्य का कल्याण नहीं होगा । गुरु आत्मनिष्ठ रहे, तृप्त रहे, यह बात ठीक है लेकिन शिष्य का कल्याण तभी होगा, जो गुरु निवृत्तिपरायण है, उपशमायन है, ब्रह्मनिष्ठ है ।
  • अप्रमेय है अर्थात् जो प्रमा का विषय है, ज्ञेय न हो, दृश्य न हो, ध्येय न हो I श्रुति कहती हैं ‘प्रत्यञ्च न विमुञ्चति ‘ अपनी प्रत्यगात्मा को नहीं छोड़ती है क्योंकी एक मात्र प्रत्यगात्मा ही ऐसी है जो अप्रमेय है I
  • निष्कामता ही अन्तः करण की शुद्धि है | यह एक सद्गुण है।अर्थात् सत्य परमात्मा हमारे हृदय में शान्ति के रूप में आ जाते हैं, उसीको बोलते हैं अन्तःकरण की शुद्धि। संशय और अविश्वास से रहित होना ही अन्तःकरण की शुद्धि है।  यदि आपका अन्तःकरण शुद्ध है तो आप यह समझेंगे कि जो वस्तु जानी जाती है वह किसी प्रमाण से जानी जाती है।
  • सुनिश्चित वेदान्त विज्ञान का अर्थ है उस परमात्मा से अपना ऐक्य जानना, ‘उस अनन्त परमात्मा से मैं एक हूँ’ या ‘वह मुझ से एक है’।यह नित्य सिद्ध जो एकता है , स्वतःप्रमाण है, स्वयंप्रकाश है उसको जान लेना यह वेदान्त विज्ञान का सुनिश्चित अर्थ है और संन्यास योग नहीं आया तो सुनिश्चित अर्थ नहीं होगा।
  • एक स्वामीजी, महाराजश्री के कृपापात्र, उन्होंने पूछा-
    “सब संस्कार रूप है, स्मृति रूप है, उसीको ठोस करके हम यह संसार, यह व्यवहार चला रहे हैं?”
    महाराजश्री ने कहा –
    “हाँ, ठीक है | सब कल्पना ही है क्योंकि माण्डूक्य कारिका में कहा गया है कि सब कल्पना है | जब तक कल्पना करते रहते हैं, तब तक यह दृश्य प्रपंच दिखता है, कल्पना के कारण, तो यह कल्पना ही है”|
    स्वामीजी ने कहा –
    “महाराजजी! किस उपाय से हम यह कल्पना मिटा दे?”
    महाराजजी ने कहा –
    “ओहोहो! उसको मिटाने जाओगे तो वह ठोस हो जायेगा, उसको मिटाने मत जाना | कल्पना को मिटाने जाओगे तुम! आकाश की नीलिमा धोने जाओगे तुम!
    ओहो! यह सब अमंगल की कल्पना मत करो | यह भी एक अमंगल कल्पना है कि उस कल्पना को हम मिटा देंगे | नहीं, देखो इसको आपको केवल समझना है |”
    विकल्पो विनिवर्तेत कल्पितो यदि केनचित् |
    उपदेशादयं वादो ज्ञाते द्वैतं न विद्यते ||
    विकल्पना यदि होती तो उसको निवर्तित करते लेकिन यह तो उपदेश के लिए बताया जाता है, विकल्पना बतायी जाती है और एक बार तत्त्व को जान लोगे तो दूसरा है ही नहीं | अद्वैत में जो दिखता है वह भी अद्वैत ही है वहाँ दूसरा कुछ है नहीं |”
  • आप वर्तमान से संतुष्ट रहिए । जब हमारी चेतना भूत की स्मृतियों को दोहराने में व्यथित होती है, तब उसे ‘शोक’ कहते हैं । जब वर्तमान को भविष्य में ले चलने का आग्रह बुद्धि में बैठ जाता है, तब उसे ‘मोह’ कहते हैं | जब भविष्य की चिन्ता दिल को कल्पना में ले जाती है तब उसे ‘भय’ कहते हैं । ये स्मृति की व्यथा, बुद्धि का आग्रह और कल्पित चिन्ता हमारी चेतना के विकृत रूप में है । आप इनसे मुक्त होकर सहज स्वभाव में रहिए। चेतन परमात्मा अत्यन्त सन्निकट है।
  • मनुष्य जीवन में चेतना को जाग्रत कर लेना अर्थात् चेतना का उत्तरोत्तर उत्कर्ष, यही उपलब्धि है | चित्त को कहाँ रखते हैं |
    चित्तमेव हि संसार, तत्प्रयत्नेन शोधयेत् |
    यच्चित्तस्तन्मयो मर्त्यः गुह्यमेतत् सनातनम्।।’’
    ठीक है विकारों का त्याग, आसक्ति जगत् से नहीं ईश्वर से, पर चित्त बैठता कहाँ है। आज बाह्य झूठे दिखावे में मनुष्य फँसा है | प्रायः व्यक्तित्व ही सब कुछ हो गया है – जो मर्त्य है। मनुष्यों की ओर ही देखनेवाला भी अपने चित्त को मर्त्यो में ही रखता है। कोई शाश्वत का चिन्तन करने वाला तुम्हें जगाता है तो  शाश्वतता में ही जगाता है।
  • जब तक दृश्य-प्रपंच में कुछ भी, किञ्चित् भी रुचिकर लग रहा है, तब तक परमानन्द की प्राप्ति की योग्यता नहीं आयी । अतः अनन्त आनन्द की इच्छा भी नहीं जाग सकती । बुद्धि अल्प आनन्द में या दुःख में उलझी हुई है । अल्प आनन्द संस्कार जन्य और संस्कार जनक भी है । संस्कार है तो वासना है, वासन है तो संस्कार है । वासना के कारण ही भेद दर्शन है। वासना आलम्बन चाहती है। वासना-रहित ही निर्भोग-निरालम्ब आनन्द है।
  • जो कर्म या क्रिया सत्य की ओर गतिशील है, वही सत्कर्म या सत्क्रिया है, बाकी सब श्वास और उम्र को खोना है। अपने आप को बिखेरना हैं, शक्ति का ह्रास है। जो विचार सत्य के पास ले जाये, वह ही सद्विचार है, अन्य सब बुद्धि की कसरत है। जो भावना सत्य की ओर झुका देती है वह भावना ही सद्भावना है- अपने प्रति या अन्य के प्रति – बाकी सब भावुकता है। जो प्रेरणा सत्योन्मुखी हो – अपने लिए या अपने प्रिय के लिए – वही सत्प्रेरणा है, बाकी सब भाव वाणी का स्पंदन मात्र-गलकुञ्चन है-
    ‘‘वाचो विग्लापनं हि तत्’’।
  • ईश्वर: ईश्वर के कारण ही शास्त्र है। और ईश्वर की सत्ता शास्त्र से ही सिद्ध होती है। ईश्वर की कल्पना देकर हमारे शास्त्रकारों ने मनुष्य मात्र को निद्वन्दता की ओर एक कदम आगे बढ़ा दिया यदि इस ईश्वरत्व को मनुष्य स्वीकार कर लें, तो क्रमशः वह पूर्ण निद्वन्द हो सकता है।
    देश, काल, वस्तु को रखकर जो ईश्वर का विचार करते हैं, उनका ईश्वर भी परिच्छिन्न ही रह जाता है, एवं उनकी मुक्ति भी परिच्छिन्न ही रह जाती है। अर्थात् अपरिच्छन्न ईश्वर तत्त्व से एक नहीं हो पाते।
  • अवतार का कारण करुणा है, कृपा है। परमात्मा के अवतरण की प्रतीक्षा है क्या? अथवा उनके नित्य अवतरण को आप देख पा रहे हैं, और महत्व दे रहे हैं। धर्म, उपासना, भक्ति, समाधि, चिन्तन, विचार यह विभिन्न सोपानों में परमात्मा का अवतरण है। अर्थात् शरीर, मन (या भाव), स्थिति (या अवस्था), बुद्धि और गुरूपदेश ये आपके जीवन के ही उत्तरोत्तर सोपान है, जिन पर ईश्वर अवतरित होकर आता है। अवतरण ही कृपा या करुणा है। उत्तरोत्तर भूमिका दृढ़ होने दें, कृपावतार और आप अभिन्न हैं, तब तत्त्व है।
  • व्यक्तित्वः चित्त में ऐसे ही भाव उठने चाहिए, अथवा बुद्धि में ऐसे विचार उठने चाहिये – यह आग्रह ही व्यक्तित्व को जिलाये रखता है, और व्यक्तित्व जीवित है, तो वह किसी न किसी विशेषता को पकड़कर अपनी प्रस्तुति व्यवहार में करना चाहेगा। परिणामतः समर्पण नहीं होगा। तत्त्वभाव की प्रगाढ़ता भी नहीं होगी। व्यक्तिभाव या अहंकार, तत्त्वभाव को काटता रहेगा। जैसे-‘मैं साधु’, ‘मैं संन्यासी’ आदि।
  • मन : मन एकाग्र नहीं होता, मन एक होता है। मन एक है और उसी में सारे भेद खड़े होते हैं। और जब आप इन भेदों को निरस्त कर देते हैं, इनका त्याग कर देते हैं, तब केवल एक मन रहता हैं, जो परमात्मा से पृथक् नहीं रह जाता है। आपका मन परमात्मा की ही एक रश्मि है, एक किरण है।
  • त्याग: त्याग में ही जीवन अधिकार हैं, ग्रहण में नहीं। जो जितना भोगी होगा, वह उतना ही ग्रहण करता जायेगा। संग्रह परिग्रह, उपग्रह सब ग्रहण है और यह ग्रहण ही बाँधता है। संसारी बँधता है और योगी त्याग करता है। परमात्मा की अनुभूति से ही सर्वत्याग की सामर्थ्य आती है और सर्वत्याग से ही परमात्मा की अनुभूति होती है।
  • वर्णाश्रम धर्मः जब गुरु के चरणेां में जाकर, वहाँ सेवा कर्म करते हैं, तब ब्रह्मचारी के जीवन में शूद्र की, अर्थात् शूद्रत्व की प्रधानता होती है। उसके बाद जो विद्या वहाँ दी जाती है उसका वह प्रयत्नपूर्वक संग्रह करता है तो वहाँ पर वैश्य हो जात है। इसी को गृहस्थाश्रमी भी कह सकते हैं |
    उसके बाद वह अपने को परमात्मा के विभाग में डालकर और समस्त दृश्य प्रपंच को अनित्य जगत् के विभाग में डालकर अनात्म प्रपंच के साथ युद्ध करता है, तब वह क्षत्रिय है, वह जिज्ञासु है।
    अन्य का संग आभासमात्र, प्रतीतिमात्र होने से यह वानप्रस्थी है और जब देश, काल, वस्तुओं की जो प्रतीति होती है उसका भी सम्यक् बाध करके वह समदृष्टि, ब्रह्मदृष्टि में प्रतिष्ठित होता है, तब वह ब्राह्मण है। यही संन्यास है।
  • हिंसा: मनुष्य में हिंसा आई कैसे?
    इस पर यदि विचार करें तो ज्ञात होगा कि, ज्यों-ज्यों चित्त बहिर्मुख होता गया, जीवन हिंसा से भरता गया। पुष्ट बहिर्मुखता होती गयी। पुष्ट बहिर्मुखता का ही नाम हिंसा हो गया। पहले स्वयं को हिंसित करता है, तब अन्य की हिंसा को उद्यत होता है।
    स ह्यात्महा स्वंःविनिहन्त्यसदग्रहात्“।
    • सत्यपूत सुन्दर विचार जब उठता है या प्रकट होता है, तब बुद्धि व्यष्टि-बुद्धि नहीं होती है, माने संकीर्ण बुद्धि नहीं होती है। व्यापकता और उदारता लिए हुए समष्टि-बुद्धि में ही मंगलमय विचार अन्तर्निहित है। वहीं उनका प्राकट्य और अन्तर्धान हैै । इसलिए कल्याणकारी विचारों को ‘ईश्वरीय विचार‘ कहते है और तद् संबंधिनी बुद्धि को ‘सद्-बुद्धि’ कहते हैं । यह मूल-प्रकाश-चुम्बित-बुद्धि  ही सर्वहितकारिणी है । अभिमान शुभ-विचारों का या सद्-बुद्धि का प्रतिबन्धक है । अपनी बुद्धि को मूल-उद्गम की ओर अभिमुख कर देना है- ‘धियो यो नःप्रचोदयात्’ दिव्यता, ईश्वरता, उदारता इसी जीवन में प्रकट होने लगेगी । व्यष्टि, संकीर्णता, मिथ्या-अभिनिवेश मात्र दृष्टि दोष है, अर्थात् भ्रामक प्रतीतियाँँ हैं बुद्धि शुद्ध ही है।
    • जीवन का बल धर्म, ज्ञान का बल वैराग्य और प्रेम का बल असंगता है। धर्म वैराग्य और असंगता को सोपानक्रम से लाता है। धर्म परमार्थ वस्तु की अनुभूति में स्वयं को मिटाकर धन्य होता है। धर्म अधर्म का विरोधी है किन्तु वस्तु-सत्य निर्विरोध है। निर्विरोध सत्य स्वरूप का जिससे निश्चय हो वही सत्संग है। वह मनोरंजन (मन का सुख) और सुविधा (देह हा सुख) से रहित ही होता है।
      ‘‘विभेद जनकेऽज्ञाने नाशमात्यन्तिकं गते।
      आत्मनो ब्रह्मणो भेदमसन्तं कः करिष्यति’’।
    • जिस पर सद्गुरु की कृपा है वह बदलती हुई परिस्थितियों, व्यक्तियों, वस्तुओं, देश या काल से अप्रभावित रहते हैं। गुरु सन्मुखता ही भक्ति है। श्री गुरुदेव साधकत्व प्रभव है तो सिद्ध वस्तु भी है। ईश्वर भक्ति एवं गुरु भक्ति में भेद नहीं | अज्ञात ईश्वर निष्ठा भक्ति है तो ज्ञात भक्ति ही ब्रह्मनिष्ठा है।
    • यह हमारी भारतीय संस्कृति की अपूर्व देन है कि, सर्व सामान्य को भी अमृतत्त्व की ओर चलने की प्रेरणा देती है । अनन्त परमात्मा को आस्था के बल से देश काल तथा व्यक्ति के साथ जोड़ दिया गया, उसी का नाम तीर्थ, पर्व और महात्मा हुआ। महान तीर्थ, महान पर्व और महान आत्माओं के सत्संग के झरोखे से सत्य की एक झलक आप अवश्य ही प्राप्त कर सकते हैं ।
      ‘’एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।
    • जिस अखण्ड अविनाशी ज्ञान में जन्म-मृत्यु इत्यादि सभी द्वन्द्व आकाश में तिरमिरे की तरह चमक कर बुझ जातें हैं, ऐसे साक्षात् अपरोक्ष ब्रह्म-तत्त्व में वासना एवं गति रहित जाग्रति ही निर्वाण है। असत् कभी जीवित् नहीं रह सकता और सत् की कभी मृत्यु नहीं होती है। यह वृद्धि क्षय-रहित अनन्त जीवन ब्रह्मसंस्था रूप अमृत है।
      ‘‘अविनाशी वा अरेऽयमात्मानुच्छित्ति धर्मा’’।
    • चुटकी में ज्ञान, वह तो महात्माओं की एक शैली है। पहले तो यह सोचना है कि आप बन्धे कहाँ है? जबतक आपने सृष्टि को ठोस कर रखा है तबतक आपको अनेक साधन बताए जाते हैं। एक छोटी सी चीज छोड़ नहीं सकते तो मुक्ति की बात कहाँ। चुटकी में मुक्ति उसकी होती है जो चाहता है।
    • भोग-बुद्धि अभिमान रूप कणिका की जनक व जन्य है और यही संसार है।
      वासना एव संसार इति सर्वा विमु़ञ्चताः’ ।
      त्याग-बुद्धि प्रपञ्चोपशम है। त्याग बुद्धि पवित्रता है, जबकि भोग बुद्धि पवित्र को अपवित्र कर देती है। जैसे अखण्ड का भोग खण्ड बनाता है। गुरुता का भोग लघुता लाता है। करुणा का भोग दंभ लाता है। सरलता का भोग कुटिल बनाता है। ईश्वरत्व का भोग जीवत्व है। शास्त्र (चेतन) का भोग जड़ता देता है। आनन्द का भोग दुःख देता है। वैसे ही पुरुषत्व का भोग स्त्रीत्व और स्त्रीत्व का भोग पुरुषत्व है। क्योंकि भोग-बुद्धि ही भेद बना विपरीतता को पुष्ट करती है। निवृत्ति-धर्म ही इस भोग बुद्धि का निवर्तक है।
    • यदि तुम धर्मात्मा हो तो अपनी धर्म निष्ठा पर अडि़ग रहो। यदि तुम भक्त हो तो भगवान् पर विश्वास करो, यदि तुम साधक हो तो वीर धीर बनो और सोच लो कि जो भी संघर्ष होगा हम झेल लेंगें और यदि तुम विचारक हो तो संसार को-दृश्य को देखना ही छोड़ दो। यह नाम रूपात्मक प्रतीयमान दृश्य ही तो तुम्हें परेशान करता है। इसे छोड़कर तुम इसके देखने वाले को देखो। स्वप्न को मत देखो स्वप्न द्रष्टा को देखो।
    • जगत् एक स्वप्न है, दस वर्ष पूर्व की सब घटनाएँ तुम्हारे लिए स्वप्न हो गई, ऐसे ही प्रत्येक क्षण भूत की ओर, स्मृति की ओर स्वप्नवत् सरकता जा रहा है,और तुम अनुभवकर्ता वही हो । जब तक यह विचार गहराई में प्रवेश नहीं करता तब तक असुरक्षा, अन्सतोष, अशान्ति बनी रहेगी। जीवन में निर्द्वन्द्वता विचार से ही आती है। विचार माने-अपने देहादि से असंगता का विचार।
    • परमार्थ की ओर उन्मुख जिज्ञासु के जीवन में जैस-जैसे संग्रह, परिग्रह वासना और आसक्तियों का त्याग होता चला जाता है वैसे-वैसे धर्म की कोई उपयोगिता उसके लिए नहीं रह जाती। इससे यह न समझे कि अधर्म जीवन में आ जाता है। वह सहज-वैराग्य के रूप में ‘नेह नानास्ति किञ्चन’ अर्थात् निषेध का सामर्थ्य होकर रहता है। निषेध का सामर्थ्य ही धर्म का शोधित रूप है। प्रथम सोपान में धर्म मर्यादा और अनुशासन सिखाने आता है, अतः शक्ति के रूप में रोधक (रोकने वाली) में जीवन रहता है। साधक धर्मानुसार प्राप्त विषय को भी नहीं भोगता है। जबकि बोधवान प्रतीयमान सम्पूर्ण दृश्य का माने प्रातीतिक विषयों का भी निषेध कर देता है।
    • प्रकृति के प्रवाह में “जीवभाव” एक सर्वोत्कृष्ट पद है | यह पद प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति इत्यादि के पद से भी उत्कृष्ट है | शास्त्र ने यह जीवभाव देकर मनुष्य मात्र पर उपकार किया है |
      इसी जीव-भाव के अहंकार के सभी रूपों को भस्मीभूत करके शिव भस्म का अंगराग लगाकर रहते हैं |
      शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः
      सत्यम् शिवम् अद्वैतम् |

                   ” स्वतन्त्र! गुरुदेव सर्वतन्त्र स्वतन्त्र हैं | भारत स्वतन्त्र हैं |

  • और आप? आप किस मजबूरी में परतन्त्रता भोग रहे हैं? क्या आपके हृदय में गुरु और ईश्वर नहीं हैं? आप अपनी पृथक् सत्ता बनायेंगे, तभी परतन्त्रता को आमन्त्रण देंगे | आप – परमात्मा अन्तर्यामी से एक हो जाइये | आप स्वतन्त्र हैं – परम स्वतन्त्र हैं |
  • आप घबरा मत जाना और यह भी मत समझना कि यह भावुकता की बात है | यह एक सत्य बात है, अद्भुत बात है | जिसने अपने को माया में लपेटा है उसका नाम ईश्वर है | और जिसने अपने को माया से छुडा़ लिया है, माया जहाँ पानी भरती है, उसका नाम महात्मा है | यह जीता – जागता, चलता – फिरता तत्त्व है और उसको कोई उत्कृष्ट, उत्तम शिष्य ही समझ पाता है |
  • गुरु और शिष्य में जैसा गम्भीर प्रेम होता है वैसा कहीं होता नहीं | यह भगवान् और भक्त के प्रेम से भी उत्कृष्ट प्रेम है | अविद्या अपने आश्रय को मुग्ध करती है और यहाँ अविद्या की कोई कथा ही नहीं है क्योंकि गुरुदेव के प्रति प्रीति से ही अज्ञान की निवृत्ति हो रही है | गुरुदेव के अस्तित्व में अज्ञान है नहीं |
  • ब्रह्मज्ञान में व्यापकता का अनुसन्धान नहीं किया जाता | अध्यस्त और अधिष्ठान का अनुसन्धान किया जाता है | अधिष्ठान- अध्यस्त के विचार के लिए अध्यस्त के मिथ्यात्व का निश्चय होना चाहिए | यह जो स्वार्थ है यह हमारे हृदय की प्रीति को विषैली कर देता है, उसमें प्रेम नहीं होता, प्रेम की छाया भी नहीं होती |