महाराजश्री वाक्य १

शास्त्र वासना अथवा ज्ञान वासना भी पूर्ण होकर ‘मैं’ को सुखी नहीं बना सकती | वे निवृत्त होकर ही ‘मैं’ के सहज ज्ञान को निरावरण होने का अवसर देती है |

  • आत्मा अवेद्य होने से ही अविद्या का अधिष्ठान सिद्ध है और नित्य अपरोक्ष होने से विद्या का अधिष्ठान है|
  • अज्ञान और ज्ञान दोनों की हेतुता आत्मा में है|
  • आत्मा कभी परोक्ष नहीं होता सदा अपरोक्ष रहता है|
  • वेदान्त का महावाक्य यह बताया कि अवच्छिन्न और अनवच्छिन्न में, आभास और अनाभास में, बिम्ब और प्रतिबिम्ब में कोई भेद नहीं है| वह ब्रह्म ही है|
  • जब हम प्रमाणगत धर्म को और प्रमाण को अपने में स्वीकार करके प्रमाता बनते हैं तभी प्रमाणों की प्रवृत्ति होती है| प्रमाता के बिना प्रमाणों की प्रवृत्ति नहीं होती|
  • कल्पित ब्रह्मज्ञान से कल्पित अविद्या की निवृत्ति होती है| वस्तुतथ्य में ज्ञान-अज्ञान का भेद नहीं है| इसीलिए वह साक्षात् अपरोक्ष है|
  • साक्षात् अपरोक्ष ब्रह्म है, इसका तात्पर्य यह भी है कि अपना स्वरूप वृत्तियों से बाधित नहीं है|
  • अपरिच्छिन्न में, अपरिच्छिन्न को, अपरिच्छिन्न से, अपरिच्छिन्न ही परिच्छिन्न रूप से भास रहा है|
  • स्वयं को रुलाना ही प्रियतम को रुलाना है और दूसरा नहीं है| यह वेदान्त का बिलकुल परिपक्व सिद्धान्त है
  • यह जो अनुगत और व्यावृत संख्या ‘एक’ है इससे विलक्षण होता है ‘अद्वितीय’|
  • वेदान्त का अध्ययन नहीं होता, वेदान्त का श्रवण होता है | इसलिए गुरु चरणों में बैठकर सत्संप्रदाय के अनुसार स्वाध्याय और श्रवण आवश्यक है|
  • देश-काल-वस्तु रूप प्रपंच और प्रपंचाकार वृत्ति और वृत्ति का अधिष्ठान अपना आत्मा परब्रह्म परमात्मा है|
  • परब्रह्म परमात्मा में प्रतीत होने वाले निखिल प्रपंच का परित्याग कर दो, यह संन्यास है।
  • मोक्ष की इच्छा कर्म से उत्पन्न नहीं होती है। बाकी सभी इच्छा कर्म से उत्पन्न होती है।
  • जो स्वप्न का द्रष्टा है वही जाग्रत का द्रष्टा है। उसीका नाम एक जीववाद है।
  • सृष्टि प्रतीति समकाल है, यही दृष्टि सृष्टिवाद है, वही एक जीववाद है और वही अजातवाद है।
  • अहम् जब इदम् के साथ तादात्म्य करता है तब उसे अध्यास, भ्रान्ति, अज्ञान, बेवकूफी कहते हैं। ‘इदम्’, ‘यह’ के साथ ‘मैं’ जुड़ता है तब उसे अज्ञान कहते हैं।
    यदि हम समझलें ‘यह’ का अत्यन्ताभाव, तो यह ज्ञान है।
  • हमारे हाथ में ईश्वर के अवतरण का नाम कर्म है।
  • हमारी प्रीति में ईश्वर के अवतरण का नाम भक्ति है।
  • हमारी बुद्धि में ईश्वर के अवतरण का नाम ज्ञान है।
  • निवृत्ति अपने अधिष्ठान से भिन्न नहीं होती। अतःअविद्या की निवृत्ति ही ब्रह्म है।
  • गीता बुद्धि को मारकर अपना काम नहीं करती, बुद्धि को रखकर अपना काम करती है | वेदान्त निर्वृत्तिकवादी नहीं है, यह निर्विशेष वृत्तिवादी है, बुद्धिवादी है |
  • ईश्वर की प्रकृति है कि वह अद्वितीय होने पर भी सर्व रूप में प्रकट होता है और सर्व रूप में प्रकट होकर भी परिणामी नहीं होता |
  • सृष्टि के ‘ हाँ ‘ और ‘ ना ‘ में, इन दोनों में जो शक्ति है, उस शक्ति से जो पूर्ण में, अद्वैत तत्त्व में, जो अवच्छिन्नता है, उस अवच्छिन्नता से भी अनवच्छिन्न जो तत्त्व है, उसको प्रत्यक् चैतन्याभिन्न ब्रह्म बोलते हैं |
  • देखना यह है कि, साध्य-साधन लक्षणवाला जो भी अनित्य पदार्थ है उससे वैराग्य हुआ कि नहीं! यह योग्यता, यह सामर्थ्य जिसके अन्दर होवे उसको तत्त्वज्ञान होता है |
  • निर्विषय संवित्, यह निष्काम शब्द का अर्थ है और निष्कामता तप है – वह निर्विषय संविद् रूप है | अर्थात् तप आत्मा है और इसको ब्रह्म बताना वेदान्त का काम है |
  • द्रष्टा निरंश होने पर भी अपने को ही दृश्य के रूप में दिखाता है और द्रष्टा रूप से देखता है | यही द्रष्टा की प्रकृति है |
  • एक वस्तु ऐसी है जिसके होने में प्रमाण तो नहीं है पर है | जिसकी सिद्धि के बिना प्रमाण ही सिद्ध नहीं होते |
  • मालूम पड़ता है‘ और ‘मालूम पड़ना मिट जाता है,’ — इसके सिवाय दुनिया और कुछ नहीं है |
  • तन्निष्ठाः – उसमें अभिनिवेश करो |
    अरे! साक्षात् अनुभव न हो तब भी जिद करलो कि हम तो ब्रह्म है |
    अस्यते, प्राप्यते, ध्यानाद् नित्यात्मा ब्रह्म – चिन्तनाः तत्परायणाः
    बस वहीं पहुँचना है उसके आगे और कुछ नहीं |
  • मैं नहीं हूँ‘ इस बाध कल्पना से विनिर्मुक्त जो आत्मसत्ता है,
    उसीमें, उसको, उसीसे, वही दिख रहा है |
    इसलिए दृश्य में जो अन्यत्व की कल्पना है वह सर्वथा मिथ्या है |
  • दुनिया में जो भी चीजें हैं, मालूम पड़ती है, वह आपके ही ‘ हैं ‘ से मालूम पड़ती है |
    है ‘ और ‘ होना ‘ दो अलग-अलग चीजें हैं |
    जो एक रूप से दूसरे रूप को प्राप्त होता है वह ‘ होना ‘ है, और ‘ है ‘ उसको कहते हैं जो अपने स्वरूप में रहता है |
    इसीसे ‘ सत् ‘ और ‘ भू ‘ में भी फरक होता है |