ई – बुक

प्रमाण पर श्रृद्धा होना यही वास्तविक श्रवन है

ब्रह्मसूत्र – प्रेमपुरी आश्रम मुंबई

1

अभी कोई एक सज्जन हमारे पास आये, पूछा – ‘आप क्या लेने वाले हैं?’
हमने कहा – ‘ब्रह्मसूत्र लेने वाले हैं’ |
उन्होंने कहा – ‘अरे बापरे! इतना कठिन विषय, ये तो हम सुनने को तैयार नहीं’ |
देखो एक धारणा है| आप विचार कीजिए कि श्रुतियों के तात्पर्य का निर्णय जिस ग्रन्थ में किया गया हो, और वह भी किया किसने? महर्षि व्यासजी ने|
ऋषि हमेशा सरल होते हैं क्योंकि सत्य सरल होता है| सत्य सरल होता है इसलिए ऋषि सरल होते हैं| किसी बात को दाव-पेच में नहीं डालते, एकदम सरल करके बताते हैं|

2

ब्रह्मसूत्र
उस ब्रह्मसूत्र से एकदम डर जाना – आश्रम में एक साधक है| उन्होंने कहा कि – ‘आप जहाँ भी जाओ तो, अगर सुबह वेदान्त लेते हो तो शाम को भक्ति जरूर लेना’| एक तो विभाजन कर देते हैं| तो कहा, ‘शाम को भक्ति जरूर लेना क्योंकि हम अभी नये साधक है, हमारे लिए भी तो कुछ चाहिए’|
तो सबसे पहले तो बात यह कहनी है कि यह वेदान्त दर्शन हे| ब्रह्मसूत्र को वेदान्त दर्शन कहते हैं| यह हमारा दार्शनिक प्रस्थान है| और यह सबसे सरल दर्शन है क्योंकि यह सत्य है| आपको कठिन लगता है क्योंकि जो माया है, जो दाव-पेच युक्त जगत् व्यवहार है – उसमें हमने अपनी बुद्धि को लगा रखा है| जब हमने अपनी बुद्धि को दाव-पेच में लगा रखा है, कुछ न कुछ कपट में लगा रखा है तो सत्य हमें कठिन लगने लगता है|

3
ब्रह्मसूत्र
कैसी विचित्र बात है – एक विडम्बना है कि सत्य कठिन लगता है, सरल जो है वह कठिन लगता है| हम लोग से कहो कि यह जगत् का व्यवहार चला लो तो, एक को बोलते हैं तुम टिकट करा देना, तुम ये कर देना, तुम वह कर देना – और अपना ? तो अपना कहो दिमाग को फ्री free रखना| तो यह जगत् का व्यवहार कठिन है|
हमारे परम पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि – ” जितनी समस्याएँ हैं वह माया में हैं, ब्रह्म में कोई समस्या नहीं “| तो ऐसा जो समस्याहीन, निर्भ्रान्त, अबाध्य, अकाट्य सत्य है, उसको हम कहे कि यह कठिन हे! ब्रह्मसूत्र हम आपको, चाहे भाष्य हो पाये या न हो पाये लेकिन, आपको बिल्कुल सरल करके ब्रह्मसूत्र सुनाएँगे| आप महीनों तक सुनते रहिए, वर्षों तक सुनते रहिए, जब तक देह है सुना सकते हैं| तो यह निर्भ्रान्त सत्य है, इसको कठिन नहीं मानना चाहिए|

4
ब्रह्मसूत्र
भगवान् भाष्यकार ने इसके प्रारम्भ में भाष्य दिया – कोई मंगलाचरण नहीं, कुछ नहीं, पहले से क्योंकि, यह आपके जीवन का सत्य है|
आप स्वयं ब्रह्म है|
केवल न जानने के कारण आप अपने जीवन के सत्य से दूर हो गये| तो ब्रह्म शब्द से एकदम घबराना नहीं चाहिए|
ब्रह्म अर्थात् वह जिसमें देश काल वस्तुकृत् परिच्छेद सामान्य का अत्यन्ताभाव हो जाता है, अत्यन्त अभाव हो जाता है|
उससे उपलक्षित वह नहीं है, नहीं तो आप अत्यन्ताभाव को ही ब्रह्म मान लेंगे तो, पुन:आपके जीवन से दूर चला जायेगा ब्रह्म| वह आपका जीवन है, आपका अपना सर्वस्व है, आपकी अपनी आत्मा है| और केवल न जानने से हमारी उससे दूरी है, उससे मिलने में देरी है, केवल न जानने से,अज्ञान से|
वह श्रुतियों का जो सत्य है उसे दिखाने के लिए भगवान् वेदव्यासजी ने, श्रुतियों में तो सत्य है ही लेकिन, उस सत्य को दिखाने के लिए उन्होंने इतना परिश्रम किया कि पुराण दिये, इतिहास दिये, इतिहास में महाभारत और महाभारत में श्रीमद्भगवद्गीता जो, हमारा स्मार्त प्रस्थान है|
श्रौत प्रस्थान तो अपौरुषेय है लेकिन भगवान् वेदव्यासजी ने स्मार्त प्रस्थान भी दिया – प्रस्थान त्रयी आप लोग जानते हैं और यह दार्शनिक प्रस्थान –
यह ब्रह्मसूत्र तो दार्शनिक प्रस्थान है –
और दर्शन किसका करना है? सरल का, सत्य का दर्शन करना है तो, कठिन नहीं है|
इसका रचयता वेदव्यासजी है| श्रुतियों के तात्पर्य का इसीमें निर्णय है और अद्वितीय ब्रह्म-तत्त्व का निरूपण है|

सभी सम्प्रदायों के द्वारा यह मान्य है – चाहे शैव हो, शाक्त हो, वैष्णव हो, सौर्य हो, गाणपत्य हो सभी ने इसको मान्यता दी है और सभी आचार्यों द्वारा समादृत है| एक तो भाष्य और श्रीमहाराजजी ने, परम पूज्य गुरुदेव ने जो इसको खोलकरके , सरल करके बताया है उस तरह से हमलोग विचार करने की कोशिश करेंगे|

5
ब्रह्मसूत्र
अब क्या है – कहा कि यह तो संस्कृत भाषा में है और यह भाषा हमको आती नहीं| तो पहले ही आपको एक आश्वासन होना चाहिए कि आप उस भाषा में श्रवण कर रहे हैं जो भाषा आप को आती है, अर्थात् जो भी हो, हिन्दी हो, अंग्रेजी हो जो भी आपको भाषा आती है| क्योंकि, यहाँ जब सत्य का निरूपण होता है तो यहाँ वक्ता की प्रधानता नहीं होती और न भाषा की प्रधानता होती है कि संस्कृत में सुनाएँगे ‘तत्त्वमसि-तत्त्वमसि’ तभी ज्ञान होगा|
संस्कृत को हम लोग बहुत महत्व देते हैं क्योंकि, हमारे मूल ग्रन्थ, मूल शास्त्र वह संस्कृत में हैं इसलिए हम उसको महत्व देते हैं| लेकिन, जब सत्य का निरूपण होता है तो वहाँ वक्ता की प्रधानता नहीं होती, भाषा की प्रधानता नहीं होती – जो वस्तु सत्य है उसकी प्रधानता होती है| जिस वस्तु को बताया जा रहा है वह सत्य है या नहीं| तो कहा, फिर बताने की क्या जरूरत है जब सत्य है तो, हम अपनी इन्द्रियों से जान लेंगे| आँख से, नाक से, कान से हम उसे जान लेंगे| तो मुश्किल बात यह है कि वह सत्य ऐन्द्रियक नहीं इसलिए वचन चाहिए| आप आँख से उसे देख नहीं सकते, कान से उसे सुन नहीं सकते कि कठोर शब्द है कि कोमल शब्द है, बाँसुरी का है कि शंख का है| आप नाक से सूंघ नहीं सकते|
यह ब्रह्म-तत्त्व है, अपरिच्छिन्न तत्त्व है|
तो इसे नहीं जान सकते| वह ब्रह्म है| वह निरतिशय बृहत् है|

‘बृहत्वाद ब्रह्मणत्वाद वा’

उसको ब्रह्म कहते हैं| वह बृहत् है अर्थात् उसका कोई संकोचक नहीं| देश भी उसका संकोचक नहीं है, काल भी उसका संकोचक नहीं है| आपके जो करण है, आपकी जो इन्द्रियाँ है, महाराज क्या बताये! वह पूरे देश को देख सकती है क्या? नहीं देख सकती| काल को देख सकती हे क्या? नहीं देख सकती| काल को देखने के लिए क्या करता है मनुष्य का मस्तिष्क – काल को देखना है और काल को देख नहीं सकते, अखण्ड काल को आप देख नहीं सकते तो, उसके टुकडे़ बना देते हैं| महाकाल को आप देख नहीं सकते तो आप टुकडे़ बना लेते हैं और जो काल का अधिष्ठान है सत्य उसको नहीं देख सकते|

6
ब्रह्मसूत्र
तो प्रश्न एक यह उठता है कि हम देखना चाहते हैं उस वस्तु को जिसका संकोचक देश भी नहीं है, काल भी नहीं है, कार्य-कारणात्मक वस्तुएँ भी नहीं है – उसको हम देखना चाहते हैं और देखना चाहते हैं इन्द्रियों से|
जितने नास्तिक हैं कहेंगे कि ईश्वर है ही नहीं, परमात्मा है ही नहीं – क्यों? क्योंकि होता तो दिखता| तो तुम जिस करण से देखना चाहते हो – शास्त्र ने एक शब्द दिया- ‘करण निरपेक्ष’ है वह ब्रह्म-तत्त्व, ब्रह्म कहो, परमात्मा कहो, भगवान् कहो क्योंकि, अभी कहा कि भाषा के चक्कर में डालते नहीं हम लोग परमात्मा को| कुछ भी कहलो लेकिन परिभाषा जो हमारी शास्त्रीय है वही होनी चाहिए| आप शब्द कोई भी रख लीजिये|
ऐसा जो परमात्मा है, उसको हम उससे देखना चाहते हैं जिससे देख नहीं सकते इसलिए, ब्रह्म शब्द एक दिया जाता है| अपरिच्छिन्न को, अनन्त को दिखाने के लिए यह ब्रह्म शब्द दिया जाता है| और यह इसलिए दिया जाता है कि यह इन्द्रियों से नहीं देखा जा सकता, इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता| तो इन्द्रियों से नहीं देखा जा सकता फिर भी हम सोचते हैं कि इन्द्रियों से देखेंगे| तो यह हमारा एक दुस्साहस होता है| जिससे हम देख नहीं सकते, जिसको हम देखना चाहते हैं – अभी आप सुन रहे थे, श्रीमहाराजजी विज्ञान की बात सुना रहे थे| विज्ञान और ज्ञान,_ अध्यात्म- ज्ञान, दोनों को जोड़कर के कोई प्रश्न पूछ रहे हैं, और उत्तर दे रहे हैं| आप विज्ञान की दृष्टि से भी देखें तो जिस वस्तु को जिस करण से नहीं देखा जा सकता क्या आप उसको उससे देखना चाहेंगे? विज्ञान मना करेगा|
यह भी एक विज्ञान है|
यह तत्त्व विज्ञान है|
यह अध्यात्म विज्ञान है|
तो आप उस वस्तु को किसीसे देखना चाहते हैं? तो इसलिए ऐसा करण चाहिए – करण का अर्थ है प्रमाण| ऐसा प्रमाण चाहिए जिससे हम उस वस्तु को देख सके|

7
ब्रह्मसूत्र

नेत्र प्रमाण से आप प्रमेय रूप को देखते हैं| तो प्रमेय रुप है और नेत्र प्रमाण से देखते हैं| प्रमाण-प्रमेय शब्द का जब हम प्रयोग करते हैं तो उससे भी आप डरा मत कीजिए| Means of knowledge उसको प्रमाण कहते हैं और उस object को प्रमेय कहते हैं| तो आप जानना किसको चाहते हैं? जिसका कोई भी संकोचक नहीं है, जो करण निरपेक्ष हे, जो करणों के द्वारा नहीं देखा जा सकता है, जो संस्कार रहित वस्तु है|
सत्संग क्या करता है?
उस वस्तु सत्य का संस्कार डालता है इसलिए इसे सत्संग बोलते हैं| जितने भी संस्कार आप को मिले हैं, वह संग से मिले हैं| बच्चा पैदा होता है, कोई संस्कार नहीं होते – फिर माता-पिता के संस्कार, गुरु जनों के संस्कार, यार-मित्रों के संस्कार, वह सब आते-जाते हैं| सत्संग में संस्कार डाले जाते हैं लेकिन, ब्रह्म वह संस्कार रहित वस्तु है, जिसमें अनुभव की विषयता नहीं है| अर्थात् वह सत्य, वह परमात्मा – अनुभव का विषय नहीं बनता है कि काला, पीला, लाल, प्रकाश रूप, शब्द रूप – ऐसा नहीं बनता है| उसको हम अनुभव के विषय में लाना चाहते है, ये हमारी एक बहुत बडी़ ग्रन्थि है और ये ग्रन्थि टूटनी चाहिए| इस ग्रन्थि को तोड़ने के लिए, अब तो इतना व्याख्यान करके तब हम लोग समझ पाते हैं| पहले किसी समय में, जो शुद्धान्त:करण है, वो गुरुदेव के पास जाकर प्रश्न पूछते थे तो उसको एक शब्द कहने से उसका तात्पर्य अर्थ प्रकट होता था| तो ब्रह्म शब्द कहने से ही हमारी बुद्धि में जितनी परिच्छिन्नताएँ हैं वह टूटने लगती है|

8
ब्रह्मसूत्र

कहा कि, महाराज! हम ने समझ लिया वह नित्य है| तो कहा ठीक है भाई आप कहते हैं कि नित्य है| तो नित्य जो शब्द है वह काल से जुडा़ हुआ है और काल की धारा में वह बहता रहता है| नित्य शब्द के साथ काल की धारणा, वह आपकी बुद्धि में रहती है| जब आप कहते हैं कि वह व्यापक है तो वह देश के साथ जुडा़ रहता है और देश के निर्देश में अपनी व्यापकता को वह बनाये रखता है| अनन्त शब्द से भी आप ऐसे ही ले लेते हैं कि वह बहुत व्यापक होगा|
जब कहते हैं कि वह सब का कारण है तो जितनी कार्य रूप वस्तुएँ हैं, उस कार्य में वह कारण रूप से अनुस्यूत रहता है| कारण रूप से समस्त कार्य में वह अनुस्यूत रहता है| तो उसको हम क्या बोलते हैं – देश काल और वस्तु का कारण| तो देश में व्यापक-भरपूर और काल में नित्य और वस्तु में कारण रूप से अनुस्यूत, तो हमारी बुद्धि में ये तीनों चीजें देश-काल-वस्तु, बनी रहती है| तो अब यह जो कार्यता है आपकी, तो कार्य का जब प्रागभाव होता है, अर्थात् कार्य जब होता नहीं है तो? तो कहा वहाँ कारण तो रहता है?तो उससे वह उपलक्षित होता है|
तो, जो जितनी अनेकताएँ दिखती हैं, वह वस्तु में हैं| यहाँ तक कि पृथ्वी दिखती हैं, सूर्य दिखता हैं, जो भी आपको निहारिकाएँ दिखती हैं वह सब वस्तुएँ हैं, वह सब कार्य हैं और उनका कारण कौन? तो कहा ब्रह्म ऐसे हम सोचते हैं| तो उनका कारण ब्रह्म किन्तु, जब यह कुछ भी दृश्य नहीं था, जैसे सुषुप्ति में या लय में या प्रलय में कोई दृश्य नहीं था तभी तो वह परमात्मा था! जब हम ‘था’ कहते है तो काल खडा़ रहता है, भला! लेकिन, समझने के लिए शब्दों का प्रयोग किया जाता है| जब हम कहते हैं कि तभी वह परमात्मा था तो इसलिए कहा कि आप उसको अपने किसी समझ के, अभिमान के घेरे में मत लाइये|
यह ऐसा तत्त्व है जिसमें काल की नित्यता भी नहीं है, उसका भी अत्यन्त अभाव है| वह अन्तर्देश, बहिर देश और व्यापकता की स्वीकृति जो हम देश में करते हैं, वह भी नहीं है| और उसमें कारणत्व भी नहीं है क्योंकि वह बीज नहीं बनता| वह बीज नहीं बनता|

9
ब्रह्मसूत्र

जो काल में आप नित्यता को देखते हैं, ध्यान देना, जो बहती हुई एक नित्यता है, वह नहीं है क्योंकि काल के अत्यन्ताभाव से उपलक्षित है| देश में जो संकोच-विस्तार है, व्यापकता होती है, फैलना-सिकुड़ना होता है – समुद्र किनारे बैठे हैं बडा़ अच्छा लगता है, क्यों? क्योंकि दृष्टि का विस्तार होता है, दूर तक दृष्टि फैलती है| एक बडे़ कमरे में आते हैं अच्छा लगता है, एक छोटी सी काल कोठरी में डाल देते हैं अच्छा नहीं लगता, संकोच हो जाता है, लेकिन है क्या? देश ही है| तो संकुचित होना, विस्तृत होना यह सब देश में होता है| यह देश का अन्तर्देश-बहिर्देश है, फिर बोलते हैं, “हमारे परमात्मा अन्तर्देश में है, बहिर्देश में नहीं है”| बिचारे भक्त लोग कहते हैं “बाहर सर्वत्र परमात्मा हैं”| तो हम कहते है ” नहीं विवेक करो, विवेक करो, अन्तर्देश में परमात्मा को ढूँढो़”|
तो इसलिए कहा जाता है कि आपका अपना आपा हमेशा साथ में रहता है अन्तर्यामी इसलिए उसे कह देते हैं, बाकी अन्दर-बाहर का भेद है ही नहीं| केवल एक चमडी़ से, त्वचा से आप अन्दर-बाहर का भेद बना लेते हैं| देहाभिमान से आप अन्दर-बाहर का भेद बनाते हैं| वह एक चेतन है जिसमें अन्दर-बाहर सब समा जाता है| उसमें अन्तर्देश बहिर्देश का भी अन्तर बनता नहीं|

10
ब्रह्मसूत्र

तो बीजत्व है ब्रह्म में?
बीजत्व ब्रह्म में है भी और नहीं भी – बहुत अद्भुत माया है क्योंकि, सर्व कारणत्व उसमें आरोपित किया जाता है और हटाया भी जाता है शास्त्र द्वारा, बीजत्व| क्योंकि जब एक बीज आप लेते है तो बीज को बडी़ सारी वस्तुएँ चाहिए होती है| बीज से अंकुर निकलता है तो उसको स्थान चाहिए फूलने-पटकने के लिए, काल चाहिए, उसमें उपादानता चाहिए और उसमें कोई-न-कोई संस्कार होना चाहिए, बीज में| और यहाँ कह रहे हैं उसमें संस्कार नहीं है|
संस्कार होना चाहिए बीज में तब आपको एक बीज से नीम का फल मिलता है और एक बीज से आम का फल मिलता है| तो जो बहु रुपता देखने में आती है, अनेकता देखने में आती है, वह संस्कारों को सिद्ध करती हैं| यह नहीं कहना कि शास्त्र सिद्ध करता है – वह भी हम लोग कहेंगे कि शास्त्र सिद्ध करता है| लेकिन, उसका तर्क आप क्या देंगे जो अनेकता देखने में आती है जगत् में? तो वो क्यों आती है? संस्कारों के भेद के कारण| एक को पशु बनना अच्छा लगता है, एक को स्त्री बनना अच्छा लगता है, एक को पुरुष बनना अच्छा लगता है|
अभी एक कन्या मिली थी दिल्ली में, वह बिल्कुल अमेरिका से पढ़कर आयी थी, तो हम ने कहा, ‘तुम तो बिल्कुल लड़कों के जैसे दिखाने लगे हो’| तो बोलती है, ‘नहीं मुझे दाढी़ मूछ नहीं चाहिए, बहुत tideous job है| तो किसको कौनसा शरीर चाहिए!
एक ऐसे भी बताते है कि जब मृत्यु होती है तो भगवान् उसके सामने उसका जीवन रख देते हैं – यह देखो यहाँ से यहाँ तक, इस प्रकार तुम जीये हो| और जब वह जीव अपने सम्पूर्ण जीवन का अवलोकन करता है, निरीक्षण करता है तो, उसको अपनी भूल समझ में आती है| भगवान् बोलते हैं, ” अब तुम्हें किस प्रकार का जीवन चाहिए?” तो वह कहता है,तक “अब ऐसा जीवन चाहिए” मानलो, “कि मेरे में क्रोध तो हो”,खुद स्वीकृति देता है महाराज| जो क्रोधी होते हैं वो क्रोध को खुद स्वीकृति दिये होते हैं, भगवान् के सामने| तो बोलता है, ” थोडा़ क्रोध तो हो मुझ में हो क्योंकि, पूरे जीवन में मैं देखता हूँ कि वहाँ-वहाँ मुझे जमकर उत्तर देना चाहिए था लेकिन मैं ने दिया नहीं|”
अब क्रोध एक उपलक्षण है, आप पूरा सब गणित लगा लेना| वह ऐसा बोल देता है| तो भगवान् कहते हैं, “ठीक है, तुम जैसा चाहते हो वैसा जीवन लो, और जैसा शरीर चाहते हो वैसा शरीर लो, हम तो तथास्तु कह देंगे| हमारे पास कोई कमी नहीं है| हम सब के लिए तैयार है|” अब वह उस प्रकार का देह, उस प्रकार का जीवन, उस प्रकार का क्रोध उसको मिल जाता है|
अब भगवान् क्या करते हैं – उसको ऐसी परिस्थिति मेँ डालते हैं जिससे क्रोध पर चोट पड़ती है| अब दूसरा जब जीवन लेने जाता है तो कहता है, “मुझे क्रोध नहीं चाहिए” क्योंकि क्रोध पर चोट पड़ती रहती है, उसके| सब जगह उसको पता है – “अरे! क्रोध नहीं किया होता तो इतना फायदा होता व्यापार में| क्रोध करके हम पिट गये, नहीं तो हम भी अंबानी होते|” ऐसे-ऐसे वह सोचता है| तो दूसरे जीवन में क्योंकि, अभी तो वह वासनावान जीव है, भगवान् से एक होना नहीं चाहता, भगवान् से माँगता है, अभी माया में फँसा है, तो ऐसे माँगता रहता है|

11
ब्रह्मसूत्र

तो बिना संस्कारों के अनेकता उस परमात्मा में बन नहीं सकती| वेदान्त इतना सुंदर शास्त्र है, आप यदि एक सम्पूर्णतया, समग्रतया देखेंगे तो| वेदान्त ने कहा कि ब्रह्म में बीजत्व तो है क्योंकि यह कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड, इनकी शाखा, उपशाखा – ये विश्व वृक्ष, इतना बडा़ जो दिख रहा है, ये किस बीज से उत्पन्न हुआ? तो छोटासा कोई बीज तो होगा नहीं? तो इसलिए कहा कि यह ब्रह्म बीज से उत्पन्न हुआ है|
लेकिन, अब वह ब्रह्म में बीज बनने के लिए संस्कार चाहिए, देश चाहिए, काल चाहिए, उपादानता चाहिए, पौष्टिक खाद चाहिए और विकारी होना उसका स्वभाव चाहिए छे चीजें चाहिए होती है|
ब्रह्म में तो विकार हो नहीं सकता| उपादानता चाहिए वास्तविक, देश चाहिए, काल चाहिए, पौष्टिक खाद चाहिए – सब चाहिए| तो इतनी चीज चाहिए, खाद भी चाहिए होता है| जल आदि जो आप देते हैं वह खाद ही तो है, जिससे पुष्ट होता है पौधा| तब बीज से अंकुर निकलता है, वृक्ष होता है, फल आते हैं – वहाँ तक जाता है|
अब हमारा जो यह ब्रह्म बीज है – प्रश्न यह उठा है कि ब्रह्म में बीजत्व है कि नहीं – देश का विचार, काल का विचार| क्योंकि कार्य कारणत्व लेते हैं हम वस्तु में – तो उसके बीजत्व का विचार कि वह उसमें है कि नहीं?
तो कहा पहले तो संस्कार चाहिए नहीं तो अनेकता कैसे होगी? और उसमें संस्कार है नहीं| उसमें परिणाम और परिवर्तन होना चाहिए और वह विकारी है नहीं कि परिवर्तन होगा! वासना युक्त है नहीं परमात्मा| तो इतनी मुश्किलें आ गयी| तो इसी को लेकर के वेदान्तो में कई शाखाएँ बन गयी – द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत, इत्यादि तो ये बन गया| तो यह सृष्टि जो दिखती है, यह सृष्टि की समस्या खडी़ हो गयी, ब्रह्म की कोई समस्या नहीं है|

12
ब्रह्मसूत्र

दूसरे जो आते हैं, हमारे योगी आदि, वह कहते हैं कि, तुम सृष्टि का विचार ही क्यों करते हो? आँखें बन्द करलो| पर विचारक जो है, मीमाँसक, पूर्व मीमाँसा – उत्तर मीमाँसा, उन्होंने कहा कि नहीं| यह जो दृश्य प्रपंच
है, यह जो सृष्टि है इसका भी विचार तुम्हें करना पडे़गा| तुम आँखें बन्द करके नहीं रह सकते, इसलिए यह ब्रह्मविद्या यह अपने आप में पूर्ण है|
तो इन्होंने कहा कि देखो – यह दृश्य प्रपंच तो है, दिखता है, प्रतीत होता है लेकिन, यह सत्य नहीं है| यह मालूम ही पड़ता है, यह सत्य नहीं है, यह स्वप्नवत् है| जितने समय दिखता है, उतने समय है – एक बात|
दूसरी बात – क्योंकि यह आपका अनुभव है प्रतिदिन का, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, आपका अनुभव है – तो आता है चला जाता है-आता है चला जाता है| लेकिन, ब्रह्म जो इसका कारण है, वह विवर्ति उपादान कारण है, वह सीधे-सीधे कारण नहीं है| वह विवर्ति – अर्थात् जब तक ब्रह्मज्ञान नहीं हुआ, एक अद्वै तत्त्व का – यह अद्वैत है अर्थात् अद्वैत वेदान्त की बात है, शंकर वेदान्त की बात है – तो जब तक आपको ब्रह्मज्ञान नहीं हुआ तब तक यह दिखने वाला दृश्य प्रपंच और इस में दिखने वाला कार्य-कारण भाव सच्चा है और ब्रह्मज्ञान हो जाने के बाद यह बाधित ही दिखता है| दिखता है पर यह पता होता है कि इस में कोई सत्यता नहीं है|

यावद् हेतुफलावेश तावद् हेतुफलोद्भव:|
क्षीणे हेतुफलावेशे संसारो न प्रवर्तते||

जब तक कार्य-कारण भाव आपकी बुद्धि में प्रतिष्ठित है तब तक यह दृश्य प्रपंच आपको सत्य मालूम पड़ता है| यह बुद्धि की करामात है| अभी आपको बताया था कि बुद्धि बिचारी काल को नहीं देख पाती तो उसके टुकडे़ बना लेती है| उसके अवयव संस्थान बना-बनाकर और तब उसको grasp करती है| तब सोचती है मैं ने काल को देखा, बुद्धि ऐसे समझती है|
हम लोग ऐसे बोलते हैं कि हमारे समय में चवन्नी भी होती थी, आप बोलेंगे आज के युवा| और हम लोग क्या बोलते हैं? हमारे समय में एक छेदवाला पैसा भी होता था, जब छोटे बच्चे थे| तो क्या है हमने दृश्य को देखा और दृश्य को देखकर समय को उसके साथ जोडा़, काल को उसके साथ जोडा़, विषय को उसके साथ जोडा़, स्थान को जोडा़, इस देश में तो स्थान को जोडा़, ऐसे जोड़कर हम व्यवहार चला रहे हैं| हम लोग थिगडे़- थिगडे़, चिथडे़-चिथडे़ जोड़-जोड़कर व्यवहार चला रहे हैं|
अपनी बुद्धि को देखना – यह थिगडे़ जोड़-जोड़कर हम व्यवहार चला रहे हैं| और जब आपको थिगडा़ रहित ऐसी एक वस्तु दी जाती है, उसका विचार दिया जाता है तो आप फौरन घबराते हैं, नहीं हमारे थिगडों का क्या होगा? आपको जब इतनी बडी़ वस्तु दी जा रही है परमात्मा, ब्रह्म – तो इस चिथडों की पोटली को बाँधकर क्यों रखना चाहते हैं? यह बात समझ में नहीं आती| इसलिए कहा तुम्हारी बुद्धि हम घुमायेंगे ऋषि-मुनियों ने कहा|

13
ब्रह्मसूत्र
उन्होंने ब्रह्म-तत्त्व को कारण बता दिया| अच्छा वह जगत् का कारण है! हाँ वह जगत् से अभिन्न है, जगत् से भिन्न नहीं है, लेकिन, वह एक अद्वितीय तत्त्व है| इसमें यह जगत् ऐसे ही फुरफुराता, डोलता रहता है| जब तक हम इसको ठोस समझते हैं तब तक मान-अपमान लाते हैं, राग-द्वेष लाते हैं, अच्छा-बुरा लाते हैं, पापीपना-पुण्यात्मापना, स्वर्ग-नरक, गमनागमन, लोकत्व-परलोकत्व सब लाते हैं| तो सबकी निवृत्ति होती है| इसीको बोलते है मोक्ष और इसीलिए मोक्ष यहीं होता है, सद्यो मुक्ति होती है| कहीं और जाकर मोक्ष नहीं होता है| ऐसा यह ब्रह्म-तत्त्व का विचार है जिसमें यह अवयव रूप जो देश काल वस्तु है ये नहीं है|
अच्छा कहा इसको जानने की इच्छा ही दुर्लभ होती है| क्यों? क्योंकि संस्कार से आक्रान्त और वासनाओं से वासित जो बुद्धि है वह इस तत्त्व को जानने की इच्छा क्यों कर करेगी? अत्यन्त पुण्यों के परिपाक से होती है, अन्तःकरण शुद्ध होने पर होती है| और तब वह शुद्धान्तःकरण कहता है अब इन चिथडो़ं से काम नहीं चलयेँगे, हम उस अनन्त वस्तु
की ओर चलेंगे जहाँ जाकर हमारा अभिमान विगलित हो जाता है| यह रोज-रोज की समस्याएँ और जन्म-मृत्यु का चक्र इससे हम छूट जाते है|

14
ब्रह्मसूत्र

‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ अर्थात् ‘अथ अतः ब्रह्मजिज्ञासा’ यह हमारा प्रथम सूत्र है| सूत्र तो हम लोग लेंगे नहीं, अध्यास भाष्य लेंगे| लेकिन, शास्त्र जो हमारा ब्रह्मसूत्र है उसका विचार कर रहे हैं| ‘ब्रह्म’ शब्द पर थोडा़ विचार किया और करेंगे ही हम लोग|
‘अतो’ माने ‘अतः’ इसके पश्चात्, ‘अथ’ अर्थात् इसके अनन्तर| किसके अनन्तर? जो शुद्धान्तःकरण जिज्ञासु है| ‘अतः’ किस हेतु से, अर्थात् परिच्छिन्न वस्तुओं से उसको तृप्ति नहीं हुई है| जिसको परिच्छिन्न वस्तुओं से तृप्ति हो गयी है उसको वेदान्त विचार करने के लिए आने की आवश्यकता नहीं| वह मौज से रहे, अपना|
हमारे श्रीगुरुदेव कहते हैं कि, रोग फैलाकर तब हम दवाई नहीं देते| संत महात्मा कहते हैं, “ये भव रोग है” “ये भव रोग है” पर आपको रोग लगा ही नहीं है| आप रोग में ही प्रसन्न है तो कोई क्या करेगा! तो क्या कर सकते हैं? इसलिए जिनको रोग लगा है, जो छूटना चाहते हैं वो आकर विचार करें|
वह क्या कहता है? “ये परिच्छिन्न वस्तुओं से हमें तृप्ति नहीं हुई है| हमें यह अब और नहीं चाहिए|” जो सोचते हैं कि हम टी.वी. देखते रहेंगे और टी.वी. में से भगवान् निकलकर आ जायेंगे तो उनके लिए क्या कहा जाये इसलिए, वह तो अनर्थ की निवृत्ति चाहते ही नहीं|
एक बात आपको और सुनाये| एक बात कही जाती है, ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ इसमें ‘अथ’ ‘अतः’ इसके उपरान्त अब ब्रह्म की जिज्ञासा करते हैं, इच्छा करते हैं| यह जिज्ञासा, यह इच्छा, इसमें कर्तव्यता नहीं होती| कोई भी इच्छा, कामना जब हो जाती है तब पता चलता है|
हमारे श्रीगुरुदेव कहते हैं – “आप बाहर निकलकर जाओगे और दस मिनट बाद क्या विचार सोचोगे, किस इच्छा का उदय हो जायेगा, आपको पता है?” नहीं पता| जब वह इच्छा का उदय हो जायेगा तब आप उसको जानेंगे| तब आप उसके औचित्य और अनौचित्य का विचार करेंगे| उचित्त है या अनुचित्त बुद्धि से विचार करेंगे और इन्द्रियों से उसके अनुसार कर्म करेंगे| तो बीच में है इच्छा, इधर बुद्धि बैठी है, इधर इन्द्रियाँ, कर्म और शरीरज बैठा है|
आप यदि धर्माधर्म का विचार करने वाले हैं, उचित्त और अनुचित्त का विचार करने वाले हैं तो उस इच्छा को आप सम्मान दे कि असम्मान दे, जैसी है, उचित्त है तो सम्मान और अनुचित्त है तो उसको तिरस्कृत कर देंगे और शरीर से उसके अनुसार कर्म नहीं करेंगे तो बीच में झुलस जायेंगी इच्छा| ठीक है! ये बहुत बार आपने सुना होगा| इसमें कहते है कि-

मानस पुण्य होय नहि पापा

15
ब्रह्मसूत्र

तुलसीदासजी महाराज ने कहा जब आपके चित्त में कोई शुभ इच्छा का उदय होगा तो तब उससे आपको पुण्य मिलेगा, पवित्रता मिलेगी पर, कोई पाप वृत्ति का उदय हुआ और उसके अनुसार कर्म नहीं किया तो आपको पाप नहीं लगेगा| क्योंकि इच्छा जब उदित हो जाती है तब हमें उसका ज्ञान होता है| इच्छा कृति साध्य नहीं है| इच्छा उदित होने के बाद आपने रूप को दिखाती है| इच्छा के अनुसार हम कर्म करें न करें इसमें हम स्वतन्त्र हैं| यह बात जो कही गयी है, वहाँ वर्णन किया गया कि कलियुग में ‘मानस पुण्य होय नहीं पापा’| यह बात कलियुग के लिए कही गयी है|
इसका अर्थ यह निकला कि सत्युग में मानस पाप भी लगते हैं| अर्थात् तात्पर्य यह हुआ कि यदि आप ज्यादा जाग्रत है, सावधान है, परम अर्थ सत्य की ओर चल रहे हैं तो, आप सत्युग में पहुँच गये| यहाँ, इस सत्संग भवन में कलियुग का प्रवेश नहीं है, बाहर बैठा है, जब बाहर जायेंगे तब लगेगा| यहाँ आप सजग है, सावधान है, ब्रह्मविद्या का श्रवण सावधानी पूर्वक कर रहे हैं| और उसमें कोई एक बुरा विचार आ जाये – ‘ओ! यह बुरा विचार कहाँ से आया! अब हम और जप करेंगे, ध्यान करेंगे और हम सत्संग करेंगे, जिसमें यह नहीं कि सत्संग के समय कोई दुर्विचार आ जाये’ ऐसा आप सोचेंगे, क्यों? क्योंकि आप सत्युग में है| उसका पाप लगता नहीं – मतलब आप स्वर्ग नरक नहीं जायेंगे लेकिन, आपको स्वयं ही एक ग्लानि होगी| और जो स्वयं जाग्रत नहीं है, पशुवत् जीवन जी रहे हैं तो उनको कोई ग्लानि नहीं होगी| दुर्विचार आया तो आया, दोस्तों से और जाकर कहेंगे, ‘हमने ऐसा सोचा|’ दोस्त कहेंगे, ‘चलो योजना बनाओ, ऐसे ही करते हैं|’ ऐसा हो जाता है|

16
ब्रह्मसूत्र

यहाँ पर कहा ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ अर्थात् ‘मोक्तुं इच्छा मुमुक्षा’ और ‘ज्ञातुं इच्छा जिज्ञासा’| यहाँ जिज्ञासा का अर्थ जानने की इच्छा नहीं है किन्तु, ब्रह्म विचार है| ब्रह्मज्ञान जो होता है, वह ज्ञान हमेशा केवल अज्ञान को निवृत्त करता है| ज्ञान , ब्रह्म को प्रकट नहीं करता किन्तु, ब्रह्म विषयक जो अज्ञान है उसको निवृत्त करता है| यह बात समझ लेना चाहिए| अब ब्रह्म विषयक जो ज्ञान होगा; जितने हमारे आचार्य है वैदिक वे कितने सावधान है, आप देखिये, चाहे भगवान् शंकराचार्य हो, चाहे वेदव्यास हो, श्रुतियों को साथ लेकर चलते हैं| क्योंकि, श्रुतियाँ अपौरुषेय है, पुरुष की रचना नहीं है और उसके अनुसार ब्रह्म-तत्त्व का निरूपण होता है|
आप कहेंगे, किसीने लिख दिया, आपकी शंका को भी बीच में ले आते हैं, क्रम तो टूट जाता है लेकिन, आज-कल प्रश्न ऐसे होते हैं| किसीने लिख दिया और आप उसे ‘अपौरुषेय’ ‘अपौरुषेय’ कहते हैं और फिर उस तत्त्व का निरूपण करते हैं, वो कुछ भी हो| और फिर आप हम लोगों को कह देते हैं कि वह अप्रमेय है, प्रमाण का विषय नहीं है तो, कहीं एक शब्द जाल में, शब्दों के आडम्बर में तो, हमारी बुद्धि को नहीं घुमाया जा रहा है – यह प्रश्न पूछना चाहिए|
तो शब्द जाल नहीं है क्योंकि, यह आपकी प्रत्यगात्मा हैं और इसकी अनुभूति होती है| जब आपको यह लगने लगे कि सम्पूर्ण दृश्य प्रपंच मुझसे ही उदित होता है, जो तटस्थ लक्षण बताये हैं, मुझसे ही प्रकट होता है, मेरा ही रचा हुआ है, मुझमें ही समा जाता है-

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते
येन जातानि जीवन्ति
यत्प्रयन्ति अभिसंविशन्ति|
(तै.उप. भृगु.१अनुवाक्)

तब आपकी गति चेतन की ओर हो रही है| और जब आपकी गति चेतन की ओर हो रही है तो आप इस विषय को, यह जो subject है इसको, आप आत्मसात करने लगेंगे| आपको यह समझ में आने लगेगा| और जब आपको इसका अपरोक्ष साक्षात्कार होता है तब आप समझते हैं कि यह शास्त्र कितने सुंदर है|

17
ब्रह्मसूत्र

हमारे यहाँ जब जीवन मुक्त का वर्णन आता है तो

‘निगमवर वीथी प्रचरणम्’

शास्त्र की वीथियों में, गलियों में वह रमण करता है, वह सत्संग करता है, वह शास्त्रार्थ करता है, वह एकान्त में भी शास्त्रों के विचारों को गुनगुनाता रहता है| तो उस सत्य का अपरोक्ष साक्षात्कार होता है, ऐसा नहीं कि केवल ये शब्द होता है, ये शब्द से परे है, यह अनुभूति है| एक, अभी, अनुभूति का विषय होने की बात हो रही थी, उसीमें हम लोग देश काल वस्तु पर गये थे| तो, जो देश काल वस्तु को हम अनुभूति बनाते हैं, वह भी बनती नहीं| तो यह अनुभाव्य नहीं है, अनुभूति का विषय नहीं है किन्तु, अनुभव स्वरूप है, स्वयं अनुभव स्वरूप है| उसके बाद और कुछ जानने को शेष नहीं रहता|
तो अज्ञानकृत सम्पूर्ण अनर्थों की निवृत्ति और उससे विलक्षण परमानन्द की प्राप्ति यह हमारा लक्ष्य होता है| इसके प्रति हम सावधान हो जाते हैं| तो जिसको जान लेने से सब कुछ जाना हुआ हो जाता है| श्रुति ने कहा

‘यस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति’

वह है ब्रह्म-तत्त्व अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जाता क्योंकि, जिसको जान लेने से सब जाना हुआ हो जाता है| तो ज्ञान की यहाँ महिमा है|
ब्रह्म-जिज्ञासा – जिज्ञासा शब्द देकर ज्ञान की महिमा बतायी गयी| हमारे श्रीमहाराजजी तो जिज्ञासा को अणुबम् कहते हैं, ‘अणुबम्’| यह एक ऐसा अणुबम् है क्योंकि इसमें बहुत रहस्य छुपे हुए हैं| इसलिए

न वेदविन्मनुते तम्बृहन्तम्

जो वेद के रहस्य को नहीं जानना चाहता वह ब्रह्म को नहीं जान सकता है| वह कैसे जानेगा क्योंकि, जो आपके पास प्रमाण है – आपका मन प्रमाण नहीं, आपकी बुद्धि प्रमाण नहीं, इन्द्रियों की गति तो पहले ही छूट गयी| उसमें प्रमाण है शास्त्र, वेद प्रमाण है, वेदान्त प्रमाण है अर्थात् उपनिषद् प्रमाण है|

‘वेदान्तानाम् उपनिषद् प्रमाणम्’

तो वेदान्त, उपनिषद् प्रमाण है, और उसको ही आप स्वीकृति नहीं देते तो कैसे जानेंगे?

18
ब्रह्मसूत्र

यह जिज्ञासा, जानने की इच्छा होना ही बहुत कठिन है| और इच्छा हुई तो किसके द्वारा जानोगे? करण क्या है? उपनिषद् यह करण है इसलिए, उपनिषदों की यहाँ मीमाँसा है| ब्रह्मसूत्र में तो उपनिषद् प्रमाण के द्वारा हम जानेंगे|
यदि आपका अन्तःकरण शुद्ध है तो आप यह समझेंगे कि जो वस्तु जानी जाती है वह किसी प्रमाण से जानी जाती है – प्रमाण का विभाग|
एक होता है निर्माण का विभाग, एक प्रमाण का विभाग| जब तक आप ज्ञान को महत्व नहीं देते आप प्रमाण के विभाग में नहीं आते, आप निर्माण विभाग में होते हैं, चाहे आप एकान्त में बैठकर कितनी भी समाधि लगा लीजिए| समाधि लेते हैं तो, धर्मोपासना पहले ही ले लीजिए आप| तो कितनी भी समाधि लगा लो, लोग आपको पूजने लगे, जो समाधि में रहते हैं उनकी बडी़ पूजा होती है, महाराज! वेदान्तियों को ईर्षा होती होगी|
एक हमारे गुरुभाई अभी, हमें कह रहे थे – “देखो, तुमने ज्ञान बता लिया, अब थोडा़ ध्यान कराया करो| थोडा़ ध्यान भी करना चाहिए क्योंकि ध्यान की बडी़ महिमा है, लोग उसका बडा़ महत्व समझते हैं|” विनोद कर रहे हैं| तो कहा कि, “थोडा़ ध्यान भी कराया करो तो बहुत अच्छा होगा, तुम्हारे श्रोता बढ़ जायेंगे|”
ज्ञान की महिमा जिसकी बुद्धि में आ गयी उसीको जिज्ञासा होगी| वही श्रवण करने जायेगा| यह दुर्लभ है|
सिद्ध वस्तु जो है वह प्रमाण के द्वारा जानी जायेगी| जो सिद्ध वस्तु है ही, उसको बनाना नहीं है किन्तु, जो आप ने करने का भ्रम बिठा लिया है, उस भ्रम को हटाना है, निवृत्त होना है| इसलिए जो इस प्रमाण के महत्व को समझ लेता है – एक वाक्य है, प्रमाण पर श्रद्धा होना, यही अन्तःकरण की शुद्धि है| वही वेदान्त का जिज्ञासु है जिसको वेदान्त पर श्रद्धा होती है| यदि प्रमाण पर ही श्रद्धा नहीं है तो, जिज्ञासा-जिज्ञासा कहने से क्या होगा! आप कहाँ जाकर श्रवण करेंगे? किससे? तर्क वितर्क, कुतर्क के जाल में फँस जायेगी बुद्धि| कान्दिशीक हो जायेंगे, रस्ता भूल जायेंगे|

19
ब्रह्मसूत्र

श्रुतियों ने कहा –
‘ नेह नानास्ति किञ्चन’
यहाँ नानात्व कुछ भी नहीं है| अर्थात् नानात्व को छोड़कर विचार करो| और

‘मृत्योः स मृत्युं गच्छति य इह नानैव पश्यति|(कठ्. उ.2/1/11)

परिवर्तन से परिवर्तन को चलता रहता है यह जीव| इसकी यात्रा चालू रहती है क्योंकि यहाँ पर वह ब्रह्म का दर्शन नहीं करता, वह नानात्व का, अनेकत्व को देखता है| अनेकता में जब हम परमात्मा को ढूँढ़ने जायेंगे तो, नहीं मिलेगा| इसीलिए कहा जाता है कि हृदय देश में ढूँढो़, अन्तर देश में ढूँढो़ क्योंकि वहाँ एकता है, वह एक रहता है| दृश्य आते हैं और चले जाते हैं लेकिन, एकता ज्यों-की-त्यों बर्करार रहती है वह जैसे रहती है वैसे ही रहती है|
जो परिच्छिन्नता की मृत्यु से अपनी मृत्यु मान रहे हैं; मृत्यु हुई शरीर की और मृत्यु मान ली अपनी| तो परिच्छिन्नता की मृत्यु से अपनी मृत्यु मान रहे हैं तो, उनसे यह जगत् नहीं छूटेगा, उनसे बन्धन नहीं छूटेगा, जन्म-मृत्यु नहीं छूटेगी| वह ऐसे ही चक्र में घूमते रहेंगे|
एक कोई सज्जन हैं, बोलते हैं कि – ‘हमारे पास बहुत पैसा है और हमारे पूर्वजों ने हमको दिया है तो, हम जैसे चाहे वैसे मौज से उडायेंगे, मौज शौख करेंगे|’ तो, उनको यह पता ही नहीं कि मृत्यु सामने खडी़ हुई है – कैसी विडम्बना है! मृत्यु हम देखते रहते हैं लेकिन, पता नहीं|
अभी कल हम रेल में आ रहे थे, ट्रेन में शताब्दी में, और किसी को heart attack हो गया| उनको जल्दी-जल्दी एक स्टेश्न में उतारा गया| तो वह सब हम देखते हैं, लेकिन क्या है, यदि वह हमारा कोई सम्बन्धी है तो, उस सम्बन्ध के कारण हम दुःखी होते हैं| लेकिन, मृत्यु की जो घटना है उससे हम दुःखी नहीं होते हैं| बहुत मृत्यु होती रहती है, रोज का दिखाते हैं टी.वी. में आप समाचार में देखो तो, क्या हम दुःख मनाते हैं? नहीं मनाते, एक क्षण को कर देते हैं क्योंकि अब तो ज्यादा देख-देखकर के सब की संवेदनाएँ खतम हो गयी है|
पहले एक बात हम सुनाया करते थे कि पहले जमाने में माताओं को नहीं ले जाते थे श्मशान में, क्यों? क्योंकि पुरुष ही कठोर बने और जो माता है उसकी कोमलता बनी रहे, उसकी संवेदनशीलता बनी रहे| कोई पुत्र अपनी माँ की गोदी में सिर रखकर विश्राम, एक स्नेह की शीतल छाया को प्राप्त करें| इसलिए वह माता की संवेदनाओं को,उसकी कोमलता को बनाकर रखा गया, जानबूजकर, क्योंकि उसकी आवश्यकता है समाज में – वह क्या कुछ भी नहीं है? पैसा कमा लिया तो अब कहा हम बहुत आगे बढ़ गये| यह जो संस्कृति थी यह चेतन से ओत-प्रोत संस्कृति थी| इस चेतन से ओत-प्रोत संस्कृति को अब जडता की ओर धकेला जा रहा है| ब्रह्म विचार कौन करेगा?

20
ब्रह्मसूत्र

ब्रह्म तो अत्यन्त शुद्धान्तःकरण की बात है| ये सर्वविद अनर्थ की निवृत्ति हो, उसको दृष्टि में लेकर, यह ग्रन्थ आरम्भ किया जाता है| इसमें सूत्र अनेक है, जैसे एक सूत होता है उसमें बहुत सी मणियाँ और पुष्प गूथ देते हैं, उसी प्रकार से इसमें सूत्र एक है और मन्त्र अनेक है| अनेक मन्त्रों का विचार किया जाता है| सूत्र की परिभाषा दी गयी|

अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद् विश्वतोमुखम्|
अस्तोभमनवद्यंच सूत्रं सूत्रविदो विदुः||

इसमें अक्षर थोडे़ है, ये formula form में होता है| तो वह ‘
1.’अल्पाक्षरम्’ अर्थात् शब्द थोडे़ होते हैं| ‘
2.’असंदिग्धम्’ इसमें सन्देह नहीं होता – निस्संदेह वस्तु का निरूपण किया जाता है| ‘
3.’सारवद्’ – इसमें सार-सार की बात होती है|
4.’विश्वतोमुखम्’- पूर्वापर की परीक्षा करके कहा जाता है|
‘ 5.’अस्तोभम्’ – इसको कोई काट नहीं सकता है और ‘
6.’अनवद्यंच’ -यह निर्दोष होता है|

ऐसे सूत्र के वेत्ताओं ने सूत्र का अर्थ निकाला| यह हमारा technical शब्द है इसलिए यह ब्रह्मसूत्र है|

इसमें चार अध्याय हैं अर्थात् एक ही वस्तु के चार विभाग कर दिये गये हैं|
1.समन्वय है,
2.अविरोध है,
3.साधन है,
4.फल है – ये चार अध्याय हैं|
और एक-एक अध्याय में चार-चार पाद है अर्थात् सोलह पाद हो गये|

और एक सौ इक्यानवें अधिकरण

है और पाँच सौ पच्पन्न सूत्र है|

यह ग्रन्थ का एक कलेवर बताया|

यहाँ पर पहले दिन का सत्संग पूर्ण होता है|