श्री माँ – वाक्य

” सापेक्ष ज्ञान का निषेध कर दो यही ब्रह्म विचार है ”

  • गुरु: जो उपाधि से असंश्लिष्ट है उस महात्मा के रूप में ईश्वर ही प्रकट हो रहे हैं ।
  • ब्रह्म: ब्रह्म वह है, जिसमें शब्द की गति नहीं है। बुद्धि की समस्त परिच्छिन्नताओं को समाप्त करने के लिये एक शब्द ‘ब्रह्म’ दिया गया। यह कोई ईश्वर का नाम नहीं है। परिच्छिन्नताओं के निषेध के लिए ‘ब्रह्म’ कहते हैं। ज्ञान मात्र ‘ब्रह्म’ है।
  • ज्ञान: अपना आत्मस्वरूप् एक अखण्ड अद्वितीय अभेद ज्ञान हैं इसमें भेद बनाकर हम ज्ञान की हिंसा करते है।
  • सुख:आपकी अपनी उपस्थिति ही सर्वोत्तम सुख है।
  • चिंतन: चिंतन ही जीवन हैं, चित्त ही संसार है। राग-द्वेष युक्त जो चिंतन है, वह सीमित चिन्तन है | राग-द्वेष निवृत्ति पूर्वक ही ब्रह्म तत्त्व का विचार किया जाता है। परमार्थ का चिंतन करना है, न कि सृष्टि का।
  • आज्ञाःजो बड़ों की आज्ञा मानता है, वह शास्त्र की आज्ञा भी मानेगा और वह सद्बबुद्धि की दी हुई आज्ञा भी मानेगा।
  • उत्साह: हृदय में सर्वात्म भाव की प्रतिष्ठा से उत्साह अक्षुण्ण रहता है। जहाँ-जहाँ उत्साह है, वहाँ ईश्वर की विभूति है।उत्साह भगवान् की कृपा का एक रूप है, पौरुष करने के लिए तत्पर रहो, कृपा दिखे या न दिखे जो सदैव उत्साह से पूरित है वही साधक है, कृपा तो हमेशा हो रही है।
  • अहिंसा: परिच्छिन्न ज्ञान में जो भी करते हैं वो हिंसा हैं, जहाँ हिंसा है, वहाँ दुःख है। बिना पीड़ा दिये हम भोग नहीं भोग सकते। जहाँ शान्ति है, वहाँ अहिंसा है। तत्त्वज्ञ अहिंसा में रहता है।
  • अपौरुषेय ज्ञानः संस्कार रहित ज्ञान अपौरुषेय ज्ञान है। यह संस्कार ही ज्ञान का आवरक बनकर स्मृति के रूप में भासता है। इस स्मृति का सर्वथा अपोहन कर डालना ही जीव का पुरुषार्थ है।  ‘’मत्तः स्मृतिर्ज्ञानं अपोहनं च।’
  • आत्मतत्त्व: आत्मतत्त्व अव्यवहार्य है, इसलिये जितना-जितना व्यवहार में भेद बुद्धि मिटाते जायेंगे उतनी-उतनी अव्यवहार्य तत्त्व की स्पष्टता होती चली जायेगी।
  • चैतन्य जीवन (अवमूल्यन): हम जिसका भी उपयोग या उपभोग करेंगें, उसके बदले में हमें जीवन का मूल्य देना पड़ेगा | प्रत्येक जड़ वस्तु हमारे जीवन को खाती है। परम सत्य में रमण के लिये प्राप्त चैतन्य जीवन जड़ के द्वारा भोगा जाय, वह बिडम्बना ही है, जो अविचारित ही आ गई है।
  • प्रमेय का निषेध अर्थात् हमने अपने ज्ञान को निर्विषय कर दिया|
  • उपनिषद् प्रमाण है क्योंकि वह कर्तृ-तन्त्र नहीं है, वस्तु-तन्त्र है|
  • निदिध्यासन अर्थात् ध्यान करने की इच्छा|
  • सुख-दु:ख प्रतीति है, देह व्यवहार है और आत्मा परमार्थ है|
  • बोध होने पर शम जीवन में आता है, शम अर्थात् उपशम, शान्ति, समाधि, निरन्तर आत्माकार वृत्ति|
  • जिनका सत्संग गुणातीत है, उन सद्गुरु की गुणों में बैठकर कैसे पूजा हो सकती है|
  • निर्विशेष ज्ञान का साधन श्रवण है, निस्साधनता उसका फल है|
  • प्राचीनता जब नवीनता का विरोध करने लगे तब उसे बूढा़ कहते हैं|
  • नित्यता, आनन्द, चेतनत्व यह ब्रह्म का स्वरूप है|
  • हम कार्य-कारण क्यों लगाते हैं, पहले-पीछे कैसे बनाते हैं – पहले कारण बना बाद में कार्य, आप बुद्धि के भ्रम से बनाते रहते हैं|
  • शास्त्र अध्यारोप और अपवाद के द्वारा आपको चरम लक्ष्य तक ले जाता है| आप प्रमाण से प्रमाण को सिद्ध करते हैं|
  • ज्ञान का व्यवहारिक रूप भक्ति है|
  • जो एकरस रहता है कभी नहीं बदलता वह सत् है|
  • जो स्वयं को जाने और अन्य को भी जाने वह है चेतन, प्रकाश, ज्ञान|
  • देश, काल, वस्तु, विषय से जो रहित है वह ज्ञान है|
  • परमात्मा के चिंतन से कभी विमुख न हो यही जीव का पुरुषार्थ है I
  • जितना -जितना आप अनात्म पदार्थ का निरसन करते जाते हैं, उसको हटाते जाते हैं, यही उसको हटाना , उसका निरसन कर देना, यही आपका पुरुषार्थ है I
  • नाम ,रूप और क्रिया तीनों का त्याग कर दो। नाम , रूप और क्रिया का त्याग करके जो स्थिति रहेगी वही संन्यास योग है।
  • गुरु भक्ति से, एक तो मन में गुरुदेव के प्रति प्रीति आती है और दूसरे वह प्रीति संसार की सब प्रीति, आसक्ति, जो मिथ्या है उसे काट देती है और परमात्म चिन्तन होता है।
  • गुरुदेव के प्रति समर्पण इसलिए नहीं होता क्योंकि संसार की आसक्ति बनी हुई है, दुनिया भरका प्रपंच, उसकी प्रतिक्रिया, उससे संघर्ष , उसका द्वन्द्व इसमें हम उलझे हुए हैं I
  • निर्माण विभाग भी अभेद में पर्यवसित होता है और प्रमाण में स्वयं को मिटा देता है । प्रमाण यदि निर्विरोध न हो, तो वह प्रमाण ही नहीं है। जहाँ तक विरोध है, वहाँ तक निर्माण-विभाग ही है – पुरुष तन्त्र ही है। वस्तु-तन्त्र किसी को काटकर नहीं है – बस है।
  • प्रेम और करुणा जब चैतन्य को आकार धारण करने के लिए बाध्य करता है तब अखण्ड ज्ञान की उस प्रेम-स्फुर्ति को हम अवतार कहते है। वह अवतार, आकृति, नाम या भाव या विचार के रूप में भी हो सकता है।
  • आसक्ति और प्रेम में अन्तर होता है। आसक्ति में चित्त एक आकार का अर्थात् परिच्छिन्नता को पकड़ता है। आसक्ति भोग बुद्धि में बैठती है और प्रेम असीम में बैठता है।
  • अवगुण्ठित चेतन चेतना है और चेतना को एक केन्द्र में एकाग्र करते हुए अवगुंठनों को विदीर्ण करते जाना सत्संग का उपयोग है | अनवगुण्ठित चेतना शुद्ध चैतन्य है। 
    ‘‘भिद्यते हृदय ग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्व संशयाः।।’’
  • हम व्यवहार के समय धर्म की अवहेलना करके वेदान्त में ले जाते हैं तथा ध्यान के समय व्यवहार ले आते हैं। दृढ़ रूप से तत्त्वानुसन्धान के समय व्यवहार को काट देना ही विवेक है।
  • वैराग्य में कोई घृणा नहीं, कोई ग्लानी नहीं, कोई विषाद नहीं, वह केवल उस परिस्थिति से ऊपर उठ जाता है। वैराग्य में वृत्ति नहीं है वह अन्दर में एक दिप्त, प्रदिप्त अन्तर भाव है |
  • प्रत्येक साधन पूर्ण ही हैं। गुरु की सेवा बहुत बड़ी चीज है। उसमें हर वक्त जागृति है। अगर वो जीवन पर्यन्त करता रहे तो परम पद की प्राप्ति हो जाती है।
  • सगुण से निर्गुण की ओर जाने का तीव्र प्रयत्न ही भक्ति है।
  • व्यष्टि-बुद्धि स्वापनिक है तो समष्टि बुद्धि भी ठोस नहीं है, आद्र है, द्रवित है। समिष्ट-बुद्धि की आद्रता का ही नाम ईश्वर कृपा या गुरुदेव की करुणा है- “तदेजति-तन्नैजति।”
  • यह जो अभावाकार वृत्ति है, निषेधाकार वृत्ति जो सबका निषेध करके बनती है, यह मनुष्य का बहुत बडा़ पुरुषार्थ है | पुरुषार्थ यहीं तक है क्योंकि ब्रह्माकार वृत्ति में तो कर्तापन नहीं है, इसलिए पुरुषार्थ नहीं है |
  • जहाँ गुरु भक्ति नहीं है, वहाँ ज्ञान का मानसिक एक भाव प्रधान ही प्रत्यय होगा, वास्तव में वे सत्य को नहीं जान सकेंगे |
  • भगवान् के प्रति जो लगन है, यही हमारे जीवन की शक्ति है, बाहर की शक्ति कुछ काम नहीं आती | यह भक्ति ही हमें लक्ष्य तक ले जाती है |
  • यदि जीवन में साधुता है तो आत्मा की ब्रह्मरूपता को समझ पायेंगे |
  • अभ्यास जो होता है वह सारा-का-सारा साधुता का होता है, ब्रह्मता का तो श्रवण होता है |
  • हमारे सनातन वैदिक धर्म की एक परम्परा है, कि यहाँ जितने भाव होते हैं, उन्हें वाहन दिया जाता है | शब्द, क्रिया और वस्तु यह भाव के वाहन है | क्या आप अपने भावों को वाहन दे पाते हैं? सेवा स्तुति आदि के द्वारा?
  • आपकी बुद्धि में इतनी पवित्रता इतनी सामर्थ्य, इतनी निर्वासनता होनी चाहिए कि अपना निषेध करके सत्य वस्तुतत्त्व को देख ले |
  • हमारे महाराजश्री कहते हैं कि एक चोट में
    1)जगत् की सत्यता
    2)ईश्वर की अन्यता
    3)अपनी परिच्छिन्नता
    मिटनी चाहिए तब अविद्या की निवृत्ति होती है |