विशुद्ध बोध के लिये कर्म, उपासना और ज्ञान का रहस्य जान लेना चाहिये। संसार की वृद्धि करना ही कर्म का रहस्य है, कर्मी की बुद्धि संसार को सत्य समझती है। उपासक केवल भगवान् को चाहता है। भवगत्प्रेम ही उसका सर्वस्व है। प्रेम का स्वरूप अतृप्ति है, प्रतिक्षण बढ़ते रहना है। प्रेम समुद्र के समान अथाह है, उसमें हमेशा तरंगें उठती रहती हैं। ज्ञानवान् के लिये तो यह त्रिपुटी ही है। उसकी दृष्टि में आत्मा से पृथक् किसी की सत्ता ही नहीं है।
चित्त में कहीं राग न रहने पाये। यदि थोड़ा भी राग रह गया तो जीवन विकारी हो जायेगा। इसीलिये विचारक को संन्यास लेने की आवश्यकता है। निर्वासनिकता की ओर बढ़ना संन्यास का साधन है और समता उसकी सिद्धि है।
ग्रहण, अग्रहण और अन्यथा ग्रहण-ये तीनों ही वृत्तियाँ हैं। ब्रह्म का ग्रहण तो हो नहीं सकता। उसका अग्रहण या अन्यथा ग्रहण ही हो सकता है। उसका अग्रहण निद्रा है और अन्यथा ग्रहण स्वप्न है। वास्तव में बह्म स्वप्रकाश है अनिद्र है और अस्वप्न है।
चित्त को शान्त करके पत्थर के समान निर्विकल्प अवस्था में ले जाना मोक्ष का हेतु नहीं है, प्रत्युत वस्तु (आत्मा) के यथार्थ स्वरूप का बोध ही मोक्ष का स्वरूप् है।
आभास, भास्य और भासक ये तीन ही हैं। इनमें भासक आत्मा सत्य है तथा आभास और भास्य मिथ्या है। उनकी उपेक्षा से ही आत्मा में भासकता का आरोप किया जाता है। वास्तव में वह किसी का आभासक भी नहीं है। यही समस्त वेदान्तों का निर्णय है। इसी प्रकार आनन्दाश्रय और आनन्दाभास की अपेक्षा ही आत्मा में आनन्द की कल्पना की जाती है। पञ्चकोश भी सत्ताशून्य हैं, इसलिये आत्मामें साक्षित्व भी नहीं हो सकता। यदि परमार्थतः आत्मा में भासकता, आनन्द ओर साक्षित्व को स्वीकार कर लिया जाये तो वह दृश्य और भोग्य हो जायगा। अतः आत्मा में आरोपित होने के कारण ये कल्पित ही हैं। सत्य मानने पर तो त्रिपुटी बाधित नहीं होगी।
समस्त अनात्मवर्ग व्यतिरेक करने से पहले ही यदि अन्वय कर लिया जाये तो विशुद्ध बोध नहीं होगा। देहात्मबुद्धि का नाश होने से पहले ही यदि उसे (देह को) ब्रह्म समझ लिया जाये तो नास्तिक हो जायेगा। और यदि देह से व्यतिरिक्त परिच्छिन्न कर्ता-भोक्ता में अन्वय किया तो भी अज्ञानी ही रहेगा।
प्रमाता की दृष्टि से जगत् का अपरोक्ष मिथ्यात्व निश्चय नहीं हो सकता। उसके लिये तो मिथ्यात्व ही प्रेमय हो जायेगा, क्योंकि प्रमेय के बिना प्रमाता रह नहीं सकता। जब शान्त चित्त मेें ही दृश्य जगत् की स्फुरणा नहीं होती तो स्वयं शान्त ब्रह्म इस जगत् को कैसे ग्रहण कर सकता है?
पृथक्-पृथक् अस्तित्व औपाधिक हैं। वास्तव में इनका अर्थ एक ही है। देश, काल, वस्तु में से कोई भी पकड़ में नहीं आता। इसलिये सब अनादि अनन्त ब्रह्म ही हैं। खण्ड देश, काल, वस्तु परस्पर सापेक्ष और औपाधिक हैं। ये अध्यस्त हैं। इस खण्डता का अपवाद कर देने पर जो अखण्ड देश-काल-वस्तु सत्ता है वह ब्रह्मस्वरूप ही है।
सृष्टि का कोई क्रम नहीं है। इसके अन्तर्गत मनुष्यों की सामाजिक मर्यादा और धर्म भी निश्चित नहीं है। कोई भी वस्तु ऐसी देखने में नहीं आती जो शाश्वत हो। इसलिये विद्वान् इसकी किसी भी स्थिती को देखकर विस्मित नहीं होते।
अपने को भूलकर भगवान् में तल्लीन रहना ही भक्त का मुख्य कर्तव्य है तथा निःसंकल्प हो जाना ही ज्ञानी का मुख्य कर्तव्य है। कहा भी है- ‘‘फिक्र दिल के साथ चाहे सौ लगी रहें। आशिक की शर्त है कि हरदम लौ लगी रहे।’’
भगवत्प्राप्ति के साधन है – 1.सहनशीलता का अभ्यास। 2.समय को व्यर्थ न गवाँना। 3. पदार्थ पास होते हुए भी भोगने की इच्छा न करना। 4. निरन्तर इष्टदेव का चिन्तन करना | 5.सद्गुरु की शरण ग्रहण करना।
संसार सत्ताशून्य है – ऐसा अनुभव होना बोध है तथा सत्ताशून्य अनुभव होने पर भी जो उसकी प्रतीति होती है यह बुद्धिवृत्ति है | इस बुद्धिवृत्ति को दूर करने के लिए ही ब्रह्माकार वृत्ति या बोधवृत्ति की आवृत्ति की जाती है।
प्रतीति इन्द्रियों द्वारा होती है और अनुभूति अपने द्वारा। इसलिए प्रतीति का विषय सभी को भासता है अनुभूति अपने को ही भासती हैे। अर्थात् जो वस्तु सबको एक साथ भासे उसे प्रतीति कहते हैं, जो अपने आपको ही भासे उसे अनुभूति या अनुभव कहते हैं।
अज्ञानी की दृष्टि से वृत्ति नित्य है। बोध हो जाने पर भी जब तक प्रारब्ध शेष है, तब तक तो वृत्ति रहेगी ही। प्रारब्ध का क्षय होते ही वृत्ति भी क्षीण हो जायेगी | किन्तु अज्ञानियों और उपासकों की वृत्ति देहपात के पश्चात् भी नहीं छूटेती | यह अकाट्य सिध्दान्त है। सृष्टि से दृष्टि को हटाना यह योग है और दृष्टि से सृष्टि को बनाना यह वेदान्त है। इसी को दृष्टि-सृष्टिवाद कहते हैं | इस दृष्टि का निवृत्त हो जाना ही मोक्ष है।
समाधि निर्विकल्पावस्था है और बोध निर्विकल्प स्वरूप है, समाधि कर्त्ता के अधीन है और बोध अकृत्रिम है। निर्विकल्पावस्था में वृत्ति रहती है, भले ही वह लीन हुई रहे, किन्तु बोध में नहीं रहती। वह तो निर्विकल्पस्वरूप, सब प्रकार के विकल्पों से रहित, समाधि आदि से रहित तथा आदि, मध्य और अन्त से रहित है। “निर्विकल्पस्वरूपात्मा सविकल्पविवर्जितः | सदा समाधिशून्यात्मा आदि मध्यान्तवर्जितः ||“
जिस समय मनुष्य नीति को भूल जाय, उसे सदाचार के नियमों का कोई ध्यान न रहे, तब समझना चाहिए कि वह राग-द्वेष के अधीन हुआ है – राग-द्वेष का मूल अहंकार है। अहंकार के आश्रित ही ममत्व और परत्व की भावनाएँ रहती हैं। ममत्व ही राग है और परत्व ही द्वेष है।