महाराजश्री वाक्य २
शास्त्र वासना अथवा ज्ञान वासना भी पूर्ण होकर ‘मैं’ को सुखी नहीं बना सकती | वे निवृत्त होकर ही ‘मैं’ के सहज ज्ञान को निरावरण होने का अवसर देती है |
- वेदान्तियों का कहना है कि अविद्या जानी नहीं जाती | बडी़ विचित्र बात है | लोग कहते हैं न कि अज्ञान को जान लो तो अज्ञान निवृत्त हो जाएगा | तो वेदान्ती लोग कहते हैं कि अज्ञान अनिर्वचनीय है | यदि अज्ञान जान लिया जाये तो अज्ञान ही नहीं रहा |
अज्ञान शब्द का अर्थ जो है, वह ज्ञान का विषय नहीं होता | तो क्या होता है?
जिसके बारेमें अज्ञान है, वह जाना जाता है | जैसे घडे़ के बारेमें अज्ञान है, घडा़ जाना जाएगा तो, घडे़ का अज्ञान मिट जाएगा |
हमको अज्ञान है यह जानने से अज्ञान नहीं मिटेगा | जिसके बारेमें अज्ञान है उसको जानने से अज्ञान मिटेगा, यह वेदान्त की मर्यादा है |
हम किसको नहीं जानते हैं?
परमात्मा की अखण्डता, अद्वैता, प्रत्यक् अभिन्नता-वह हमारी आत्मा से अभिन्न है, इस बात को हम नहीं जानते हैं |
तो घडे़ को नहीं जानते, घडे़ को जब जानेंगे तो घडे़ का अज्ञान मिट जाएगा | इसी प्रकार परमात्मा के स्वरूप को हम नहीं जानते हैं जब उसको जान लेंगे तब उसका अज्ञान मिट जाएगा |
अज्ञान जानने के बाद रहता नहीं मिट जाता है |
जाना जाये तो रहना चाहिए न? घडा़ जाना जाता है तो, घडा़ रहता है, तो घडा़ मिट थोडे न जाता है! बोले अज्ञान जाना जाएगा तो मिट जाएगा |
यदि अज्ञान होता तो जानने पर क्यों मिट जाता?
बोले बात यह है कि अज्ञान है नहीं | अज्ञान, अज्ञान कालमें ही है, अज्ञान काल में ही मालूम पड़ता है | इसलिए अज्ञान कालमें अज्ञान नहीं है ऐसा नहीं कह सकते और ज्ञान कालमें अज्ञान है ऐसा नहीं कह सकते | इसलिए अज्ञान अनिर्वचनीय हो गया और अज्ञान की अनिर्वचनीयता तब तक रहती है जब तक जिसके बारेमें अज्ञान है उसको न जाने |
- यह हिंसा अहिंसा का जो प्रश्न है वह बडा़ विचित्र है|
१)अपनी ओर से बिना किसी निमित्त के हिंसा करना बुरा है|
२)परन्तु जब कोई हिंसा करने लगे, तो अपनी ओर से हिंसा करने की अपेक्षा प्रतिहिंसा करना; हिंसा के बदले हिंसा कम दोषी है|
३)प्रतिहिंसा की अपेक्षा भी अहिंसा श्रेष्ठ होती है
४)परन्तु अहिंसा की अपेक्षा भी जगत् के उपयोग के अनुसार जहाँ हिंसा होनी चाहिए वहाँ हिंसा और जहाँ अहिंसा होनी चाहिए, वहाँ अहिंसा श्रेष्ठ है| इस अनिर्वचनीय जगत् में हिंसा और अहिंसा दोनों समान है|
परमात्मा के स्वरूप में हिंसा और अहिंसा का कोई अर्थ नहीं होता|
५)इसलिए वैदिक धर्म के अनुसार साधन की दृष्टि से हिंसा की अपेक्षा अहिंसा श्रेष्ठ है और राज्यपालन की दृष्टि से तो अहिंसा से हिंसा श्रेष्ठ है| - यह मत कहो कि जो ब्रह्म समस्त प्रपंच का आधार है, वही अन्त:करण का आधार है, बल्कि यों कहो कि जो परब्रह्म परमात्मा, जो आत्मा, जो द्रष्टा, साक्षी, जो चैतन्य अन्त: करण का प्रकाशक है और अन्त:करण का अधिष्ठान है, वही अन्त:करण के द्वारा सम्पूर्ण प्रपंच का भी अधिष्ठान है
- वेदान्तार्थ-विचार के बिना मनुष्य का और किसी उपाय से परम कल्याण नहीं हो सकता | और यह विचार प्रस्थान-त्रयी (उपनिषद्, गीता और ब्रह्मसूत्र) के श्रवण, मनन से उदय होता है |
जिस ज्ञान से सब प्रकार के भेदों का मिथ्यात्व निश्चय हो जाता है वह वेदान्त-ज्ञान है |
भेद पाँच प्रकार के हैं:
१)जीव ईश्वर का भेद
२)जीव-जीव का भेद
३)जीव-जगत् का भेद
४)ईश्वर जगत् का भे
५)जगत्-जगत् का भेद | - ईश्वर नहीं है, आत्मा नहीं है –
यह मूर्खता है, ज्ञान नहीं है |
जीव-जगत्-ईश्वर तीनों हैं और अलग-अलग हैं – यह साधारण ज्ञान है |
जीव-जगत् के रूप में भी भगवान् ही हैं (माने सत्ता सबकी है परन्तु स्वगत भेद रूप भगवत्सत्ता है) यह वल्लभाचार्यजी का सिद्धान्त है | भगवान् ही सब है, ईश्वर ही सब है – यह भागवत् ज्ञान है | मैं ही सब कुछ हूँ – यह (कश्मीरी) शैव ज्ञान है | किन्तु ‘सब नहीं है, ब्रह्म ही है‘ यह वेदान्त ज्ञान है | वेदान्त ज्ञान के बिना भय, दु:ख आदि की आत्यन्तिक निवृत्ति शक्य नहीं है | - भय की निवृत्ति न एकान्त में रहने से होती है और न भीड़ में रहने से |
समाधि एकान्त है, कर्म भीड़ है | इनसे भय की निवृत्ति नहीं होती |
प्रेम से भी भय की निवृत्ति नहीं होती | क्योंकि प्रेमास्पद के अहित की आशंका बनी रहती है |
विद्वत्ता और लौकिक बुद्धिमत्ता से भी भय की निवृत्ति असंभव है क्योंकि उसमें पराजय का भय और भविष्य की चिन्ता है |
जब तक अन्य की बुद्धि निवृत्त नहीं होती तब तक भय की निवृत्ति संभव नहीं है |
‘द्वितीयाद्वै भयं भवति’|
भय की निवृत्ति के लिए एक खास तरह की बुद्धि चाहिए और वह भी हमारी बनायी हुई बुद्धि न हो, परमार्थसत्य के अनुरूप(वस्तु-तन्त्रात्मक) बुद्धि होनी चाहिए | यह स्वरूप का अनुभव करनेवाली वेदान्त-वाक्य जन्य बुद्धि है | - ज्ञान से ईश्वर-सृष्ट संसार का नाश नहीं होता परन्तु उसमें जीव जो अपनी अविद्या से सृष्टि कल्पित कर ली है, उसके कारण होनेवाले दुःख का आत्यान्तिक नाश हो जाता है | संसार में सुख-दु:ख के हेतु भी बने रहते हैं, उनका इन्द्रियों से संयोग भी होता है, अन्त:करण में अभ्यास जन्य अनुकूल-प्रतिकूल संवेदन भी होता है परन्तु आत्मा में सुख-दु:ख का प्रतिभास नहीं होता अर्थात् ‘मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ‘ इत्याकारक वृत्ति का उदय नहीं होता | यही योग है: ‘तं विद्याद् दु:ख संयोगवियोगं योगसंज्ञितम्’ (गीता ६.२३)
- यह जो प्रारब्ध है, वह कर्तृत्व भोक्तृत्व का जहाँ तक अभिमान है, वहीं तक दुःख देता है | कर्तृत्व-भोक्तृत्व का अभिमान बाधित हो जाने पर वह तो जली हुई लकडी़ के समान है | वह कहाँ से दुःख देगा! वह तकलीफ नहीं दे सकता | ऐसा कौनसा पदार्थ है जिसको हम नहीं छोड़ सकते? जो सत्ता-शून्य है, सम्बन्ध-शून्य है, उसको छोड़ने में क्या कठिनाई है? जिसकी सत्ता नहीं है, जिससे सम्बन्ध नहीं है, जिसके हम कभी कर्ता ही नहीं हुए, वह चीज आकर क्या हमसे लिपटेगी! उसमें कोई सामर्थ्य है ?
अरे! यह तो मौज है हमारी | साधुओं के पास भी वासना का ढ़क्कन प्रारब्ध है | बात आपको सच्ची बोलते हैं | शंकराचार्यजी ने कहा कि भाई, बेवकूफों को समझाने के लिए भले ही प्रारब्ध का सहारा ले लिया करो, लेकिन यह तुम्हारे लिए नहीं है | तुम्हारी सृष्टि में प्रारब्ध नहीं है | अपने चेले चपाटों को संग्रह-परिग्रह की व्याख्या करने के लिए प्रारब्ध के नाम से समझाओ, यह तो हम मानते हैं | लेकिन, ब्रह्म भी बनो और अपना पूर्व जन्म भी मानो, अपना प्रारब्ध भी मानो – यह ठीक नहीं है | - “अचिन्त्य चिन्तनम्” –
जिसके दिमाग में कर्तृत्व नहीं है, जिसके चिन्तन में वृत्ति नहीं है, जिसके चिन्तन में विषय नहीं है – ऐसा चिन्तन | निर्विषय, निर्वृत्तिक, निष्कर्तृत्व – “अचिन्त्य चिन्तनम्” | ऐसा चिन्तन जिसका हो, वहाँ कोई होगा ही नहीं | - बोध, स्मृति और विस्मृति दोनों से विलक्षण है | हमें हमारी मनुष्यता का बोध कितना दृढ़ है कि न तो स्मरण रखना पड़ता है और न तो इसके विस्मरण से हमारा मनुष्यत्व ही जाता है | क्या हमारे हृदय में परमात्मा की उपस्थिति मनुष्यत्व से भी न्यून है? वह वज्र से भी कठोर और आकाश से भी अचल है| परमात्मा हमारे हृदय से भी कभी दूर नहीं हो सकता | देखो, मैं तुम्हें सार-सार बात बतलाता हूँ | यदि परमात्मा ‘अभी,’ ‘यहीं‘ और ‘यही‘ नहीं है तो वह कहीं भी नहीं है | ऐसी अवस्था में वह भी संसारी वस्तु जैसा नाशवान् होगा | आँख बन्द कर लो, बाहर की ही नहीं भीतर की भी | तुम जो हो, जहाँ हो , वही, वहीं परमात्मा है |
- महाराजश्री के पत्र से
बस तुम ही तुम हो | तुम ही पत्र लिखकर प्रश्न करते हो और तुम ही उत्तर देते हो | तुम ही सत्य जीवन हो, तुम ही शुद्ध ज्ञान हो, तुम ही परम प्रेम स्वरूप आनन्द हो! सब तुम्हारी ही महिमा है | सब तुम्हारी ही स्तुति है |
यह बात अलग है कि चाहे अपने को तुम कुछ भी जानो, कुछ भी मानो, तुम्हारा स्वयंभवन, तुम्हारी स्वयं-प्रकाशता और तुम्हारा स्वातन्त्र्य अक्षुण्ण है | यह तुम्हारी महिमा है कि तुम अपने को दुःखी मानकर रोते हो, पापी मानकर कोसते हो, सुखी मानकर हँसते हो और पुण्यात्मा मानकर अभिमान करते हो | नारायण! यही तो तुम्हारी मौज है कि तुम अपरिच्छिन्न होकर भी अपने को परिच्छिन्न देखते हो | सम्राट होकर चपरासी अथवा कंगाल के रूप में अपने को प्रकट कर रहे हो | न यह अविद्या है, न विद्या, न यह माया है, न लीला, न विमर्श | स्वयं तुम ही तुम हो |
ये पत्र और इसमें प्रकट होता हुआ आनन्द भी तुम्हीं हो | - महाराजश्री के पत्र से
सत्य अपरिवर्तनशील होता है उसे मानो चाहे न मानो, जानो चाहे न जानो, वह ज्यों-का-त्यों रहता है | जानने से अज्ञान जनित दुःख की भी निवृत्ति हो जाती है |
सत्य की उत्पत्ति नहीं होती; वह है |
असत्य की भी उत्पत्ति नहीं होती, वह है ही नहीं | सब सत्य ही सत्य है | कुछ उत्पन्न करना और कुछ नाश करना सत्य में संभव ही नहीं |
इसलिए अनुभूति का उत्पन्न होना और उसका बिगड़ जाना भी सत्य से कोई सम्बन्ध नहीं रखता | जब तुम स्वयं सत्य हो तब अनुभूति के लिए इच्छा करना, उसे अन्य बना देना है | ऐसी अवस्था में तुम उसे असत्य कर देते हो; क्योंकि सत्य के अतिरिक्त जो कुछ है, वह असत्य है |
- सत्ता माने जिससे ‘ अस्ति ‘ प्रत्यय कभी दूर न हो | ‘ अस्ति ‘ ‘अस्ति ‘ – ‘ है, ‘ जिससे ‘ है ‘ कभी अलग न हो – उसका नाम ‘सत्‘ है, ‘ अस्ति ‘ इति ‘सत्‘ | ‘अस्ति ‘ ‘ अस्ति ‘ ‘ अस्ति‘ यह जो काल में प्रत्यय होता है सो नहीं | इस ‘ अस्ति ‘ प्रत्यय का प्रकाशक जो है उसको ‘सत्‘ बोलते हैं | वह चेतन से अभिन्न है |