जप
जप वह अभ्यास है जिसमें इधर-उधर बिखरी हुई मानसिक शक्ति (विचार रूप में) अनुशासित होकर एक स्थान में केन्द्रित होने लगती है |
मन्त्र परमात्मा का शब्दात्मक प्रतीक है |
श्री श्री माँ
उ.मन्त्र परमात्मा का शब्दात्मक प्रतीक है | तुलसीदासजी महाराज कहते हैं –
“भाय कुभाँय अनख आलसऊ |
नाम लेत मंगल दिस दसहू”
अर्थात् जिस भाव से कहे, कुभाव से कहे, आलस्य से कहे और ‘अनख‘ अर्थात् अच्छा नहीं लगता भगवान् का नाम लेना फिर भी जबरदस्ती लोग कहते है तो ले लिया, भूल से पहुँच गये तो ले लिया, कैसे भी ले, तो नाम लेते हुए उसका मंगल है |
इसमें बहुत बडे़ धैर्य की आवश्यकता होती है |
अतः पहले मन न भी लगे तो जप करते रहना चाहिए | इसीलिए बताया जाता है कि अपने नियम का जप नियमित, निश्चित समय पर, निश्चित आसन पर बैठकर करो |
इतने सारे संकल्प, वासनाएँ भरी हुई हैं कि पहले मन एक आसन पर बैठना ही नहीं चाहता |
अतः धैर्य पूर्वक बैठने का अभ्यास ही प्रारम्भ में आवश्यक हो जाता है |
आहा! हम बैठे हैं, अपने प्रभु के लिए, परमात्मा-अन्तर्यामी के लिए बैठे हैं |
यह विचार भी बुद्धि और भाव को पवित्र करता है |
अब आप जप प्रारम्भ कीजिए क्योंकि, मन कम-से-कम कुछ समय के लिए ही सही शान्त है और जप के लिए उत्सुक है |
जप वह अभ्यास है जिसमें इधर-उधर बिखरी हुई मानसिक शक्ति (विचार रूप में) अनुशासित होकर एक स्थान में केन्द्रित होने लगती हैं |
जप ट्रेनिंग है और ध्यान वह कला है जिसमें मन एक ही प्रकार के विचार-प्रवाह में केन्द्रीभूत हो जाता है और तमाम दूसरे विचार हट जाते हैं |
जप के तीन प्रकार है –
१)वाचिक- जिह्वा से नामोचारण या धीमी स्वर में जप |
२)उपांशु- जिह्वा और ओष्ठ के किञ्चित् चलन से जप
३)मानसिक- मन से जप
जपमाला का महत्व–
जपमाला जप में सहायक होती है |
जब मन जप छोड़कर इधर-उधर, आगे-पीछे सरक जाता है तब जप होना बन्द हो जायेगा और माला की मोतियाँ, मनकों का सरकना भी |
माला की गति रुकने से अभ्यासी का ध्यान उधर खिंच जाता है और तब वह पुनः भटकते हुए मन को लौटाकर मन्त्र जप में लगाता है |
प्रारम्भ में मानसिक जप कठिन पड़ता है |
आँख बन्द रखने पर मन भटकता है तो आँख खुली रखकर भगवद् विग्रह का दर्शन करते हुए जप करें | प्रारम्भिक अभ्यासी पहले कुछ शब्द के सहित जप कर सकते हैं और बाद में धीरे-धीरे जप को आन्तरिक गहराई में ले जायें |
अर्थात् वाचिक से उपांशु और उपांशु के पश्चात् मानसिक जप का अभ्यास करें |
ध्यान के आसन पर माला एक संयमन का साधन है | मानसिक जप होते हुए क्रमशः धीमा होकर एक मौन शान्ति में लय हो जायेगा |
श्रीसद्गुरुदेव साधकों के लिए एक श्लोक प्रायः बोला करते थे-
“जपश्रान्तश्चरेद् ध्यानं, ध्यानश्रान्तश्चरेद् जपः |
जपध्यानपरिश्रान्तो ह्यात्मतत्त्वं विचारयेत् ||”
जप से थकने पर ध्यान करे, ध्यान से थकने पर जप करे और जप और ध्यान दोनों से परिश्रान्त होने पर आत्मतत्त्व का विचार करे |
महाराजजी
उ.जप – ‘ज‘ माने जन्म और ‘प‘ माने पाति, रक्षति – ‘जन्मनः पाति‘ जो जन्म और मृत्यु के चक्कर से बचा दे, उसका नाम ‘जप‘ |
जब नाम लोगे तो, नाम लेते-लेते जिसका नाम है उसकी याद आवेगी| वह तुम्हारे दिल में बैठा है, यह बात मालूम पडे़गी, उस पर जो पर्दा है वह हट जायेगा | और पर्दा हटाकर तुम उसको देखना नहीं चाहते हो, उसको पर्दे में ही रखना चाहते हो, तो क्या तुम्हारा प्रेम है!
श्रीउडि़या बाबाजी
उ.जापक भक्त तीन प्रकार के होते हैं – उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ |
जो दिन में एक बार जप करते हैं वे कनिष्ठ भक्त होते हैं |
जो जप तल्लीन रहते हैं वे मध्यम भक्त हैं |
जिसके पास जाने से ही अनायास जप होने लगे वह उत्तम कोटि का भक्त है |
उ.ऐसा कहने वालों की बात मत सुनो | उन्हें कहने दो अपने को तो जैसे बने वैसे भगवन्नाम स्मरण करते रहना चाहिए | यदि मन भगवान् में ही लग जायेगा तो भजन के लिए कहना ही नहीं पडे़गा, क्योंकि उस व्यक्ति से तो फिर निरन्तर भजन ही होगा | जब तक मन नहीं लगता तभी तक भजन करने क लिए जोर लगाना पड़ता है | केवल जिह्वा से भजन करते-करते भी भजन में मन लगने लगता है | जो काम अधिक समय तक किया जाता है उसमें मन को लगना ही पड़ता है – यह नियम है |