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” निश्चय करो – वे भले हमसे दूर रहें, दर्शन दे या ना दे हम जीवन को साधननिष्ठ ही बनाकर छोडेंगे | साधन युक्त जीवन ही वास्तविक जीवन है | प्रत्येक कार्य साधन बुद्धि से करो कि यह प्रभु की सेवा-पूजा है और इसके द्वारा हम सन्निकट हो रहे हैं “

माँ
परम पूज्य गुरुदेव श्रीमहाराजजी कहते हैं कि जिसको हम पाना चाहते हैं, उसका ज्ञान होना जरूरी है और उसकी प्राप्ति हुई यह ज्ञान होना भी जरूरी है | सुषुप्ति की भाँति यदि शान्ति आये और, समाधि आये, श्रीभगवान् आयें और जायें और हमें पता ही नहीं न चले तो मिलना बेकार है |

श्रीउडि़या बाबाजी महाराज ने कहा – ‘सम्पूर्ण प्रपंच का बाध करके जो स्वरूप स्थिति है वही समदृष्टि है | अत: उसकी दृष्टि सर्वदा नामरूपातीत निष्प्रपंच तत्त्व पर ही रहती है |
इससे व्यवहार में भी कारण दृष्टि प्राप्त होने के कारण समता बनी रहती है |
श्रीबाबा कहते हैं- ‘ब्रह्म सम और निर्दोष है तथा संसार विषम है और उसमें आसक्ति होना दोष है |

जिसके जीवन में एक भी समदर्शी महात्मा नहीं है उसके जीवन का उत्थान कठिन है |

हमारे शंकराचार्यजी इस श्रुति के भाष्य में कहते हैं –

तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्
समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् || मुं.उ.१/२/१२||

भाष्य-
निर्विण्णोSभयं शिवमकृतं नित्यं पदं यत्तद्विज्ञानार्थं विशेषेणाधिगमार्थं स निर्विण्णो ब्राह्मणो गुरुमेवाचार्यं शमदमदयादिसमपन्नमभिगच् छेत् | शास्त्रज्ञोSपि स्वातन्त्र्येण ब्रह्मज्ञानान्वेषणं न कुर्यादित्येतद् गुरुमेवेत्यवधारणफलम् |

अर्थ
इस प्रकार विरक्त जो अभय, शिव, अकृत और नित्य-पद है उसके विज्ञान के लिए – विशेषतया जानने के लिए वह विरक्त ब्राह्मण शमदमादिसमपन्न गुरु यानी आचार्य के पास ही जाय | शास्त्रज्ञ होने पर भी स्तन्त्रतापूर्वक ब्रह्मज्ञान का अन्वेषण न करे – यही ‘गुरुमेव‘ इस पदसमूह में निश्चयात्मक ‘एव‘ पद का अभिप्राय है |
जो व्यक्तित्व से छूटना चाहता है, वह इस समत्वबुद्धि के मार्ग पर आगे बढे़गा | जिसे अभी अपने परिच्छिन्न भाव को – अहं को बनाकर रखना है, उसमें किञ्चित् काल भावात्मक समता भले दिख जाये किन्तु, भेदबुद्धि है तो परिच्छिन्नता बनी रहेगी | अभेद से समत्व और समत्व से अभेद – यह हल किया हुआ गणित है |