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श्री माँ पूर्णप्रज्ञा

सत्यपूत सुन्दर विचार जब आता है तब बुद्धि व्यापकता लिये हुए समष्टि बुद्धि होती है, व्यष्टि की संकीर्णता को छोड़कर | इसीलिए कल्याणकारी विचारों को ईश्वरीय विचार कहते हैं |
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आदि शंकराचार्य

“प्रत्यगात्माविषय प्रत्ययसन्तान करणाभिनिवेश: च ज्ञाननिष्ठा” |

अन्तरात्मविषयक प्रतीति का निरन्तरता रखने का आग्रह का नाम “ज्ञाननिष्ठा” है |

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श्री उडि़या बाबाजी

प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों का निषेध करने पर अपरोक्ष ज्ञान होता है |
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महाराजश्री

आत्मा अवेद्य होने से ही अविद्या का अधिष्ठान सिद्ध है और नित्य अपरोक्ष होने से विद्या का अधिष्ठान है|

वेदान्त

श्री माँ

श्री श्री माँ पूर्णप्रज्ञा सच्चिदान्नद सिन्धु से प्रकट हुआ ज्ञानामृत विग्रह है, जो अद्वैत ब्रह्मचिन्तन से असंख्य ज्ञानक्षुधातुर जिज्ञासुओं को मुक्तहस्त से अमृतपान करा रही है |
श्री श्री माँ अनन्त विभुषित स्वामी श्री अखण्डानन्द सरस्वतीजी महाराज (वृन्दावन) की कृपापात्र शिष्या है |
श्री माँ औपनिषद् प्रतिपाद्य निर्विशेष ब्रह्म में प्रतिष्ठित है | एकान्त चिन्तन एवं निवृत्ति में आपकी निष्ठा है | आप उपनिषदादि अद्वैत प्रस्थानों की शांकर भाष्यानुसार व्याख्या करती हैं | जिज्ञासुओं के प्रश्न एवं शंका समाधान करने के लिए सदैव उत्साहित रहती हैं |
श्री माँ कहती हैं कि साधु की निवृत्ति-निष्ठा और निर्वासनता ही उसकी गरिमा को बढा़ती हैं | इस सम्बन्ध में श्रीउडि़या बाबाजी महाराज के वचन प्रमाण है कि, साधु को अंगुली निर्देश में नहीं रहना चाहिए |
प्रवचन के विषय में श्री माँ कहती हैं कि, औपनिषद् सिद्धान्त का प्रतिपादन करना ही श्री गुरुदेव की सच्ची सेवा है |

श्री माँ पूर्णप्रज्ञा

ब्रह्मविद्या

मनुष्य वासनानुसार शास्त्र का अर्थ निकाल लेता है | इसलिए दो चीज रखी गयी, शास्त्र भी चाहिए और गुरु भी चाहिए | जो एक बार साधक कल्पना होती है वह दूसरी बार बाधक कल्पना भी हो जाती है | शास्त्र का तात्पर्य समझना पड़ता है | शास्त्र चेतन के लिए होता है, चेतन शास्त्र के लिए नहीं |

वेदान्त प्र. – उ.

शास्त्र की प्रवृत्ति सिद्ध वस्तु को दिखाने में नहीं है पर असत् के निवर्तन में है |

ध्यान

जिसका मन ध्येय में इतना आसक्त हो जाये कि ध्येय को ही सर्वत्र देखे | अन्य पदार्थ को जाने ही नहीं, तब उसे ध्यान कहा जाता है |

श्रद्धास्थान

एक सिद्धान्त परम्परा होती है और दूसरी साधन परम्परा, जो अन्तःकरण शुद्धि के लिए होती है |
गुरु पादुका को वंदन अर्थात् सिद्धान्त या तत्त्व को वंदन |

ऑडीओ & विडीयो

” श्रवण मात्र से ज्ञान होता है “,
और आप जब श्रवण करते हैं तो वह क्या कर्म है?

आप जिस समय श्रवण कर रहे हैं, आपकी कर्मेन्द्रियाँ शान्त हैं, आप कान से श्रवण कर रहे हैं और आपकी बुद्धि समझ रही है तो, उसमें कर्म नहीं है | वह ज्ञान है |

मुख्य श्रवण जो है, वह ‘संन्यस्य श्रवणं कुर्यात्’ सब कुछ त्याग कर तब श्रवण होता है |

संपर्क

निश्चय करो – वे भले हमसे दूर रहें, दर्शन दे या ना दे हम जीवन को साधननिष्ठ ही बनाकर छोडेंगे | साधन युक्त जीवन ही वास्तविक जीवन है | प्रत्येक कार्य साधन बुद्धि से करो कि यह प्रभु की सेवा-पूजा है और इसके द्वारा हम सन्निकट हो रहे हैं |